मधुकर कहियत चतुर सुजान।
बार बार यह जोग सब्द की, हम पर टूटति तान।।
वहै सब्द संदीपन पाँडे, रचि करि बहु सुख पायौ।
वहै सब्द उनके मुख सुनि कै, भेट इहाँ लै आयो।।
भसम भेस उपदेस कह्यौ तुम, सो हमसौ नहि होइ।
मंत्रहीन नागिन क्यौ पकरै, सो कहि कैसै कोइ।।
फूलिफूलि कै क्रूर प्रमत मति, निजु निरवारयौ ज्ञान।
‘सूरदास’ ते घर क्यौ बसिहै, जिनके तुम परधान।। 178 ।।