मधुकर कहिऐ काहि सुनाइ।
हरि बिछुरत हम जिते सहे दुख, जिते बिरह के धाइ।।
बरु माधौ मधुबन ही रहते, कत जसुदा कै आए।
कत प्रभु गोपबेष ब्रज धरि कै, कत ये सुख उपजाए।।
कत गिरि धरयौ, इंद्रमद मेट्यौ, कत बन रास बनाए।
अब कहा निठुर भए अबलनि कौ, लिखि लिखि जोग पठाए।।
तुम परबीन सबै जानत हौ, तातै यह कहि आई।
अपनी को चालै सुनि ‘सूरज’ पिता जननि बिसराई।। 3537।।