मथुरा हरषित आजु भई।
ज्यौ जुवती पति आवत सुनि कै पुलकित अंग मई।।
नवसत साजि सिंगार सुँदरी, आतुर पंथ निहारति।
उड़ति धुजा तनु सुरत बिसारे, अंचल नहीं सँभारति।।
उरज प्रगट महलनि पर कलसा, लसति पास बन सारी।
ऊँचे अटनि छाज की सोभा, सीस उचाइ निहारी।।
जालरंध्र इकटक मग जोवति, किंकिनि कंचन दुर्ग।
बेनी लसित कहाँ छवि ऐसी, महलनि चित्रे उर्ग।।
बाजत नगर बाजते जहँ तहँ, और बजत घरियार।
'सूर' स्याम वनिता ज्यौ चंचल, पग नूपूर झनकार।।3023।।