मथति ग्‍वालि हरि देखी जाइ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री



मथति ग्‍वालि हरि देखी जाइ।
गए हुते माखन का चोरी, देखत छबि रहे नैन लगाइ।
डोलत तनु सिर-अँचल उधर्यौ, बेनी पीठि डुलति इहिं भाइ।
बदन-इंदु पय-पान करन कौं, मनहुँ उरग उड़ि लागत धाइ।
निरखि स्‍याम अँग-अँग-प्रति-सोमा, भुज भरि धरि, लीन्‍हौ उर लाइ।
चितै रही जुवती हरि कौ मुख, नैन-सैन दै, चितहिं चुराइ।
तन-मन की गति-मति बिसराई, सुख दीन्‍हौ कछु माखन खाइ।
सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि तुम्‍हरी लीला को कहै गाइ।।298।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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