भेडिय़ा ओढ़ भेड़ की खाल।
भुलाकर खा जाता तत्काल॥
यही था मेरा जग में हाल।
कपट का फैलाया जंजाल॥
बना मैं साधु, बिरागी, भक्त।
रहा मन भोगों में अनुरक्त॥
लगाता मैं बगुला-सा ध्यान।
मूँदता आँख, रोकता प्रान॥
दृष्टि रहती मछली की ओर।
सदा रहता मैं विषय-विभोर॥
प्रेम की कहता सुन्दर बात।
जान चर्चा करता दिन-रात॥