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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
5. उद्योग पर्व
अध्याय : 103-121
गरुड़ का यह दिग्वर्णन उन वर्णनों की अपेक्षा अधिक काल्पनिक और संक्षिप्त है, फिर भी पश्चिम दिशा के वर्णन में एक उल्लेख बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैः अत्र ध्वजवती नाम कुमारी हरिमेधसः। अर्थात हरिमेधस की ध्वजवती नाम की कुमारी कन्या सूर्य की आज्ञा से आकाश में खड़ी हो गई। यह श्लोक जितना क्लिष्ट और गूढ़ है, उतना ही ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। हरिमेधस कौन हैं? उनकी कुमारी कन्या ध्वजवती कौन है? सूर्य के आदेश से वह आकाश में क्यों खड़ी है? इन तीन प्रश्नों का उत्तर भारतीय साहित्य में कहीं नहीं है। इनका उत्तर ईरानी पारसी धर्म में है। ‘अहुरमज्द’ ईरानियों के सबसे बड़े देव हैं। उन्हें सासानी युग की पहलवी भाषा में ‘हरमुज’ कहा गया। उन्हीं के लिए गुप्त युग की संस्कृत भाषा में ‘हरिमेधस्’ नाम का प्रयोग हुआ है। देव ‘हरिमेधस्’ का उल्लेख पश्चिम दिशा के सम्बन्ध में कितनी ही बार शान्ति पर्व के अन्तर्गत नारायणीय पर्व में आया है[2] वस्तुतः शक-कुषाण काल में सूर्य पूजा के साथ हरिमेधस देव और उनके धर्म का साक्षात परिचय भारतवासियों को प्राप्त हुआ था। इन्हीं अहुरमज्द की शक्ति या प्रभा हेरेनो कहलाती थी। उसका अंकन प्रभा मंडल के भीतर होता था और उसके दोनों ओर फहराता हुआ पट या ध्वज दिखाया जाता था। इसी कारण यहाँ उसे ध्वजवती नाम दिया गया है। प्राचीन ईरानी और सासानी कला में इस प्रभा रूपी शक्ति को युवती के रूप में आकाश में स्थित दिखाया गया है। अहुरमज्द या हरिमेधस् की उस शक्ति का प्रेमी सूर्य है, मानो सूर्य के लिए ही वह आज तक आकाश में व्याप्त है। मित्र या मिहिर की पूजा प्राचीन पारसी धर्म की विशेषता थी। शक-कुषाणों के समय में सासानी या उदीच्य वेशधारी सूर्य की अनेक प्रतिमाएं बनाई गईं। इनमें भी सूर्य की मस्तक से कन्धों के पीछे फहराता हुआ पट दिखाया जाता है, जो प्रायः सभी सासानी युग की मूर्तियों में देखा जाता है। गुप्त कला में भी वह बहुध मिलता है। इसी पृष्ठ भूमि में इस श्लोक की रचना हुई। तत्पश्चात गरुड़ की पीठ पर बैठ कर गालव सर्वत्र हो आये, पर उन्हें घोड़े न मिले। तब वे गरुड़ की सलाह से ययाति राजा के यहाँ गये। प्रतिष्ठा के राजा ययाति ने कहा कि मेरे पास घोड़े नहीं, एक माधवी नामक कन्या है, उसे तुम ले जाओ। उसके विवाह-शुल्क में तुम्हें श्याम कर्ण अश्व राजाओं से प्राप्त हो जायंगे। गालव कन्या को लेकर पहले हर्यश्व नामक राजा के यहाँ गया और फिर काशिराज दिवोदास के यहाँ और इसी तरह अंत में भोज नगर के उशीनर राजा के यहाँ गया। प्रत्येक ने उसे दो-दो-सौ श्यामकर्ण अश्व दिये और अंत में शेष 200 घोड़ों के लिए उस माधवी कन्या को विश्वामित्र को ही अर्पण कर दिया। ययाति की कन्या माधवी के उपाख्यान के अन्त में स्पष्ट ही फलश्रुति का उल्लेख है। माधवी के चार पुत्रों ने अपने पुण्य फल से अपने नाना ययाति को स्वर्ग में भेजा। ज्ञात होता है कि यह उस कन्या का कोई दूसरा पुछल्ला था, जिसमें ययाति के स्वर्ग जाने की और वहाँ से पुण्य फल क्षीण होने पर गिरने की कथा थी। ययाति का आख्यान प्रसिद्ध था और उसके दो भागों को पूर्व यायात और उत्तर यायात कहा जाता था[3], जैसा महाभाष्य[4] में आया है। ययाति कन्या माधवी के चार पुत्रों की कथा और उन दोहित्रों के पुण्य से ययाति की स्वर्ग प्राप्ति उत्तर यायात आख्यान का उछटा हुआ अंग ज्ञात होता है। विश्वामित्र और गालव की कहानी के साथ उसका जोड़ नितान्त शिथिल है। भगवद्यान पर्व के साथ तो उसकी संगति किसी प्रकार बैठती ही नहीं। इसके कारण कथा सूत्र के प्रवाह में असह्य विक्षेप उत्पन्न होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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