भवसागर मैं पैरि न लीन्‍हौ -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राम अहीरी




भवसागर मैं पैरि न लीन्‍हौ,
इन पतितनि कौं देखि देखि कै पाछैं सोच न कीन्‍हौं।
अजामील-गनिकादि आदि है, पैरि पार गहि पैलौ।
संग लगाइ बीचहीं छाँड़यौ, निपट अनाथ अकेलौ।
अति गंभीर, तीर नहि नियरैं, किहि बिधि उतरयो जात ?
नहीं अधार नास अवलोकत, जित-तित गोता खात।
मोहिं देखि सब हँसत परस्‍पर, दै दै तारी तार।
उन तौ करी पाछिले की गति, गुन तौरयौ विच धार।
पद-नौका की आस लगाए, बूड़त हौं बिनु छाहँ।
अजहूँ सूर देखिबौ करिहो, बेगि गही किन बाहँ ?।।175।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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