भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
निर्मम हत्यायें
‘अच्छा, सुषेण का आगमन हो रहा है।’ वसुदेव जी ने नामकरण कर दिया। इसके पश्चात तो देवकी जी के गर्भवती होने पर ही उनके विनोद के लिए व नामकरण करने लगे। इस प्रकार उन्होंने अपने आगामी शिशुओं के नाम क्रमश: रखे थे– 'भद्रसेन', 'ऋजु', 'सम्मर्दन' और 'भद्र'। ये नाम ही मात्र तो हैं। माता-पिता को कहाँ इनका दो घड़ी भी मुख देखने को मिला था। ‘देवकी को सन्तान हुई!’ कारागार से शिशु की रुदन-ध्वनि सुनकर वहाँ के द्वार-रक्षकों एक दौड़ पड़ा था। कंस को उसने जाकर समाचार दिया। कंस ने पहले से आदेश दे रखा था कि देवकी के सन्तान होते ही उसे अविलम्ब सूचना दी जाय। अपने भवन-प्रहरियों को भी उसने कह रखा था कि कारागार-रक्षक कभी भी आवे, उसे कंस तक उसी समय पहुँचा दिया जाय। कंस इधर कई दिनों से अपने सब आवश्यक कार्यों को टाल रहा था। गणना के अनुसार देवकी के प्रसव का काल आ गया था। कंस कारागार से सूचना आने की प्रतीक्षा करता रहा था कई दिनों से। उसे इधर रात्रि में भी ठीक निद्रा नहीं आती थी। अनेक बार वह द्वार-रक्षक से पूछता रहा था– ‘कारागार से कोई नहीं आया?’ उस दिन सूचना प्रात:काल पहुँची। कंस को पिछले प्रहर में तो निद्रा आयी थी और अचानक कारागार-रक्षक आ गया। चौंककर कंस उठा। वैसे ही चल पड़ा। इन दिनों उसका रथ द्वार पर सदा प्रस्तुत रखने सारथि को आदेश था। कंस का रथ पूरे वेग से आकर कारागार के द्वार पर रुका। कंस रथ से कूदा। रक्षकों ने उसके लिए पहले ही द्वार खोल दिया था। वह सीधे वसुदेव जी के समीप से होता हुआ देवकी के समीप पहुँच गया। अभी तक देवकी जी प्रसव-मूर्छा में ही थीं। यहाँ नालोच्छेदन कौन करता। शिशु रक्त में सना सो रहा था। वह उत्पन्न होने पर नाममात्र को रोया और फिर उसने नेत्र बन्द कर लिये। कंस ने पैर पकड़कर शिशु को उठाया और कक्ष से बाहर आकर कारागार-प्रांगण में पड़ी एक शिला पर उसे पटक दिया। शिला, प्रांगण वह कोना और कंस के वस्त्र रक्त से लाल हो गये। प्रभात में उगते भगवान भुवन-भास्कर को लोग अर्घ्य देते हैं, उनकी वन्दना करते हैं, किन्तु उगते ही उन्हें ऐसा पैशाचिक दृश्य कदाचित ही देखने को इससे पहले मिला होगा। पता नहीं, उस दिन का रविमण्डल ग्लानि से अधिक रुग्ण हो गया था या नहीं। लेकिन विश्व-नियन्ता के यहाँ कंस का वह क्रूर कृत्य निश्चित गणना में आ गया था। ‘मेरा लाल!’ कंस ने शिशु का उठाया, तभी माता चौंक पड़ी थीं। उनकी मूर्छा टूटी और एक दृष्टि पड़ी कंस पर। भय से वे पुन: मूर्च्छित हो गयीं थीं। ‘वह तो तुम्हारे समीप रहने नहीं आया था!’ वसुदेव जी अब उठकर समीप आ गये थे। उन्होंने देवकी जी का सिर अंक में लिया। ‘देवकी के पास परिचारिकायें भेज दो! कंस ने लौटते ही आदेश दे दिया।’ कहने-वर्णन करने योग्य नहीं है यह दारुण घटना। यह उस कारागार में आगे और चार बार दुहरायी गयी। वह प्रांगण की शिला शिशुओं के रक्त से रंगती रही। निर्दोष सद्य:जात शिशुओं का रक्त सूखकर वहाँ काला पड़ गया था। उसे कोई पक्षी-चींटी तक चाटने नहीं आयी वहां। उन दिव्य दम्पत्ति का दु:ख, उनकी वेदना का भी कोई पार था? होगा सृष्टि का नियन्ता–संचालक करुणा-वरुणालय का; किन्तु इन परम पावन प्राणों की ओर देखने पर लगता है कि उस समय वह भी पाषाण-हृदय हो गया था। इतनी भी कहीं प्रतीक्षा करायी जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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