भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
देवकी का प्रथम गर्भ
एक दरिद्र के घर भी पुत्र होता है तो कम-से-कम फूटी थाली तो बजायी ही जाती है। वसुदेव जी के कई पुत्र हुए थे और मथुरा में राजकुमार होने का महोत्सव हुआ था; किन्तु इस बार-इस बार तो सबके मुख पर गम्भीर वेदना थी। कंस की भेजी एक परिचारिका ने कृत्रिम उत्साह दिखाकर शिशु के धरा पर आते ही दौड़कर कांस्य पात्र उठाया बजाने को, तो रोहिणी देवी ने पात्र छीन लिया उसके हाथ से और ऐसे आग्नेय नेत्रों से देखा कि किसी को फिर साहस नहीं हुआ। कहाँ का नान्दीमुख श्राद्ध और कहाँ का जातकर्म-युदुकुल पुरोहित गर्गाचार्य को समाचार भी नहीं भेजा गया। एक परिचारिका ने दौड़कर पाषाण-प्रतिमा के समान बैठे वसुदेव जी को समाचार दिया तो बोले- ‘नालोच्छेदन कर लो, कंस के पास उसे ले जाना है मुझे।’ शीघ्रता में नालोच्छेदन हुआ और तभी वसुदेव जी प्रसूति-कक्ष के द्वार पर आ खड़े हुए। उन्होंने दोनों भुजायें फैलाकर शिशु को माँगा संकेत से। उनके नेत्र लाल हो रहे थे। उनमें अश्रु तक सूख गये थे। ‘स्वामी!’ देवकी ने चीत्कार किया - इसे बचाया नहीं जा सकता?’ वह कातर कण्ठ, वे प्राणों की भिक्षा माँगते नेत्र। ‘देवि! सत्य नारायण है।’ कठिनाई से वसुदेव जी ने इतना कहा और आगे बढ़कर स्वयं शिशु को उठा लिया। वे समझ गये थे कि यहाँ दो क्षण भी रुकने का अर्थ है कि प्रतिज्ञा-निर्वाह में प्राण असमर्थ हो जायेंगे। अन्त:पुर क्रन्दन से-चीत्कार से गूँज उठा। देवकी देवी मूर्च्छित हो गयीं। केवल कंस की दासियाँ और रानियाँ स्वस्थ थीं। रानियों में एक ने देवकी को उठाया। दूसरी ने कहा- ‘इतना रुदन- क्रन्दन क्यों? ऐसी क्या विपत्ति आ गयी है? वसुदेव जी अपनी प्रतिज्ञा पूरी करे अभी लौटेंगे। मामा को भानजे का मुख ही तो दिखलाने गये हैं। शिशु तो अभी लौट आवेगा।’ ‘वे इस पर भला क्रोध करेंगे? यह तो प्रथम सन्तान है।’ दूसरी रानी ने कहा- ‘कोई भय भी उन्हें होगा तो आठवीं सन्तान से होगा।’ कंस की रानियों को देवी के अन्त:पुर का यह रुदन सर्वथा अप्रिय लगा था। कंस के प्रति यहाँ की घृणा- अविश्वास असह्य था उन्हें। अत: बहाना बनाया उन्होंने जाने का– ‘हम देखती हैं कि वे शिशु भानजे का कैसा सत्कार करते हैं?’ कंस की दोनों रानियाँ रथ में बैठकर अपने सदन चली गयीं। विश्वस्त दासियों को उन्होंने वहीं रहने और समाचार देते रहने का संकेत जाते-जाते कर दिया। ‘हाँ, इससे युवाराज को कोई भय तो नहीं। अन्त:पुर की महिलाओं में कंस की रानियों की बात से आश्वासन की मिला था। शिशु लौट आवेगा, इस आशा ने रुदन-क्रन्दन रोक दिया। देवकी जी भी आशान्वित हो उठीं थीं। सब उत्सुकता से वसुदेव जी के लौटने की प्रतीक्षा करने लगीं। ‘कीर्तिमन्त।’ शिशु को करों में उठाकर केवल एक बार वसुदेव जी ने उसे देखा और नामकरण कर दिया था। दूसरी बार उसके मुख पर दृष्टि उन्होंने नहीं डाली। दृष्टि पड़ेगी तो मोह हृदय को दुर्बल कर देगा- यह वे जानते थे। बालक रुदन नहीं कर रहा है, यह भी उनके ध्यान में नहीं आया। उनके चित्त की अवस्था यह सब सोचने योग्य नहीं थी। वे बिना किसी ओर देखे सिर झुकाये पैदल कंस के भवन की ओर तीव्र गति से पग उठाते जा रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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