भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
आकाशवाणी और...
‘आपको देवकी से तो कोई भय नहीं है? फिर पूछा वसुदेव जी ने। ‘नहीं, इससे मुझे क्या भय हो सकता है।’ कंस ने देवकी ओर देखा- ‘पर इसका अष्टम पुत्र....।’ ‘इसके पुत्र उत्पन्न होते ही मैं आपको स्वयं लाकर दे दिया करुँगा। मैं वचन देता देता हूँ।’ वसुदेव जी ने दृढ़ स्थिर स्वर में कहा। वैसे कंस के हाथ की पकड़ उनकी अब भी वैसी ही थी। ‘वसुदेव महात्मा पुरुष हैं। ये कभी असत्य नहीं बोलते। देवकी का केश छोड़ दो। स्त्री-हत्या के पाप से भी बच जाओेगे।’ नागरिकों में से प्राय: सबने एक स्वर से कहा। ‘आप वचन देते हैं?’ कंस ने मुड़कर नागरिकों की ओर अब देखा। उसको एक बड़ी भीड़ दीखी। अनेको लोग अस्त्र-शस्त्र लिये आघात को उद्यत थे। लोग दौड़े चले आ रहे थे। कंस डर जाय-ऐसा नहीं था; किन्तु सबकी पुकार अनसुनी भी करना कठिन था। ‘मैं वचन देता हूँ।’ वसुदेव जी ने शान्त स्वर में कहा। ‘अच्छी बात !’ कंस ने देवकी के केश छोड़ दिये। वसुदेव जी ने उसका दाहिना हाथ छोड़ दिया। खड्ग को केश में डालते हुए उसने कहा- ‘आप अपना वचन स्मरण रखें।’ वहीं कंस मुड़ पड़ा राजसदन जाने को पैदल ही। पीछे खड़ा सारथि आगे आकर रथ-रश्मि सम्हाल ले, इसकी भी उसने अपेक्षा नहीं की। उसका अब जैसे वसुदेव-देवकी से कोई सम्बन्ध ही नहीं रह गया था। ‘हूँ!’ नागरिकों पर एक क्रोध भरी दृष्टि डालकर जाते-जाते उसने हुंकार की थी। नागरिकों ने उसे और रथ को भी मार्ग दे दिया। उसी दिन से कंस के अन्त:करण में यादवों के प्रति द्वेष जमकर बैठ गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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