आकाशवाणी और...
किसी अन्य ने कहा- ‘इसका कोई पुत्र तुम्हारा मारने वाला होने वाला हो तो देवता उसे छिपावेंगे-बचावेंगे या तुम्हें सूचना देकर उसकी या उसकी माता की मृत्यु का कारण बनेंगे?’ ‘जो होनी होती है, होकर रहती है। उसे रोका नहीं जा सकता। इसे छोड़ दो।’ किसी ने भीड़ से कहा। ‘कैसी होनी? क्यो नही रोका जा सकता उसे।’ कंस अधिक उत्तेजित हो गया। देवताओं ने झूठ कहा होगा, यह बात मानकर वह कैसे निश्चिन्त रह सकता है। उसने हाथ छुड़ाने का प्रयत्न किया।
‘युवराज! हम इस प्रकार यह क्रूर कर्म नहीं देख सकते! छोड़ दो इसे।’ तरुणों के एक पूरे समूह ने गर्जना की। उनमें जिसके जो हाथ में आया था-तलवार, भाला, मुदगर, परशु या दण्ड उसी को लेकर दौड़ आये थे। उनकी संख्या बढ़ती जा रही थी। कंस एकाकी था। मथुरा से बाहर तो वसुदेव जी को जाना नहीं था कि सुरक्षा के लिए सेना की व्यवस्था आवश्यक होती। राजमार्ग के दोनों और स्वागतार्थ प्रस्तुत नागरिक ही थे और उनमें-से अब तरुण अस्त्र–शस्त्र उठाये दौड़े आ रहे थे।
महाराज उग्रसेन तक समाचार देने अनेक दौड़ चुके थे; किन्तु महाराज आवें या कुछ करें, इतना अवकाश कहाँ था। ‘आपको इस असहाय देवकी से तो कोई भय है नहीं। ‘वसुदेव जी ने देख लिया था कि कंस समझने से मान नहीं सकता। किसी उपदेश का प्रभाव ग्रहण करने की स्थिति मं वह नहीं है। यह भी अनुभव कर रहे थे कि अधिक देर तक उसका हाथ रोकने की शक्ति उनमें नहीं है। सहसा ही कुछ निश्चिय करके उन्होंने पूछा।
बहुत पीछे श्री वसुदेव जी ने स्वयं बतलाया था कि अचानक उनके चित्त में उठा- ‘देवकी का पाणिग्रहण किया है उन्होंने। वह पति क्या जो प्राण देकर भी पत्नी की रक्षा न कर सके; किन्तु कंस से युद्ध करके केवल प्राण दिये जा सकते हैं, देवकी को बचाया नहीं जा सकता। ये आसपास के उद्यत तरुण भी व्यर्थ मारे ही जायँगे। ‘एकाकी कंस भी सब पर भारी है। अत: इस समय देवकी की मृत्यु को टाल देना प्रथम कर्तव्य है।’ ‘देवकी के पुत्र होंगे ही- क्या निश्चित है। पुत्रों के होने तक क्या कंस की मृत्यु असम्भव ही है? पुत्र कभी आगे होगा और इस दयनीया की मृत्यु तो सिर पर आ खड़ी है। इस मृत्यु को टालना ही है।’ ‘देवकी के अष्टम पुत्र से तो है।’ कंस दहाडा। ‘इसे छोड़ दीजिये! इसके जो पुत्र होंगे, उन्हें मैं जन्म लेते ही आपको दे दिया करूंगा।’ ‘क्या?’ कंस का हाथ थोड़ा ढीला पड़ गया।
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