भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
विवाह
कंस के स्वभाव में शीघ्रता थी, वह प्रतीक्षा करना जानता नहीं था। उसके आग्रह के कारण महर्षि को विवाह का मुहूर्त निकट का वह रखना पड़ा, जो उन्हें श्रेष्ठतम नहीं लग रहा था। वृद्धायें अन्त तक कहती सुनी गयीं मथुरा में कि ‘कंस के दुराग्रह के कारण देवकी का पाणिग्रहण शीघ्रता में हुआ।’ कंस ने विवाह-मण्डप में यद्यपि कहा नम्रतापूर्वक; किन्तु उसके स्वर में आदेश एवं कठोरता भी स्पष्ट थे। उसने कहा था- ‘आचार्य! बिचारी बालिका कल सायं से उपवास किये है। वसुदेव जी तो उपवास को सह सकते हैं; किन्तु देवकी तो बच्ची है, आप विलम्ब कर रहे हैं! परिणय-क्रिया यथाशक्ति समाप्त करने की कृपा करें। ‘अच्छा तात!’ आचार्य ने अन्यमनस्क भाव से कहा था- ‘ मैं कुछ अधिक उत्तम लग्न की प्रतीक्षा कर रहा था; किन्तु तुम्हारी इच्छा ही हो। नियति को गर्ग टाल कैसे सकता है। आचार्य ने सचमुच शीघ्रता की सभी क्रियाओं में। उनके शब्दों पर उस समय किसी ने भी ध्यान नहीं दिया था। दहेज की गणना सम्भव नहीं थी। युवराज कंस ने बहुत अधिक सामग्री पहिले ही वसुदेव जी के भवन भेज दी थी। अश्व, गज, रथ, गौयें आदि की वहाँ संख्या मात्र सुना दी गयी। लगता था कि मथुरा का सम्पूर्ण राजकोष ही दे दिया गया है। भव्य सत्कार किया कंस ने सबका और उस सत्कार के समय विन्रमता की मूर्ति बन गया। उसने वसुदेव जी के सेवकों तक के चरण धोये, स्वयं उनको वस्त्राभरण से सज्जित किया। वह रात्रि मथुरा की अन्तिम उल्लास भरी रात्रि बन जायगी, यह किसी को कहाँ पता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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