भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
युवराज कंस
पृथ्वी पर दिग्विजय करने मगधराज जरासन्ध निकले थे। धरा पर मल्ल युद्ध और गदा युद्ध में उनकी तुलना नहीं थी। कंस की दिग्विजय का समाचार पाकर मथुरा आये और यमुना तट पर उन्होंने सैनिक-शिविर डाला। उनके पास साठ सहस्र गजबल रखने वाला महागज कुबलयापीड़ था। वह महागज अपनी श्रंखला तोड़कर सैनिक शिविर से भागा। कुशल यह हुई वह नगर में नहीं गया। नगर के बाहर मल्लशाला में पहुँच गया। उस समय युवराज कंस वहाँ दैनिक व्यायाम एवं मल्ल युद्ध करने पहुँचे थे। उस पर्वताकार मत्तगज को देखकर दूसरे मल्ल भाग खड़े हुए; किन्तु कंस ने गज की सूंड़ पकड़ ली और उसे घसीटता हुआ सीधे जरासन्ध के सैनिक-शिविर में मगधराज के सामने ले गया। ‘आप अपने इस गज को ठीक बांध रखें।’ कंस ने उच्च स्वर में चेतावनी दी- ‘यह नगर तक पहुँच गया था। अब यदि यह फिर उधर आया तो सम्भव है आप तक लौट न सके।' ‘तात! तुम इसे मेरा उपहार मानकर स्वीकार कर लो।’ जरासन्ध ने सहर्ष उठकर कंस को हृदय से लगा लिया और बहुत सत्कार करके, उसी गज पर बैठाकर शिविर से विदा किया। उसी दिन मगधराज के कुल पुरोहित महाराज उग्रसेन के सम्मुख नारियल लेकर पहुँचे और उन्होंने प्रार्थना की- ‘मगधराज अपनी दोनों पुत्रियों के विवाह के सम्बन्ध में बहुत चिन्तित थे। अल्पप्राण पुरुष को अपना जामाता बनाकर वे लज्जित नहीं होना चाहते थे। मगध से वे उपयुक्त पात्र के अन्वेषणार्थ ही निकले थे। सौभाग्य से हम मथुरा आ पहुँचे। आपके ज्येष्ठ कुमार के बाहुबल को हमने प्रत्यक्ष देख लिया। मगधराज ने प्रार्थना की है कि यह नारियल स्वीकार करके इस सम्बन्ध को स्वीकृति देने का अनुग्रह करें।’ युवाराज कंस राजसभा में ही थे। नगर में यह बात फैल चुकी थी कि मगधराज के महागज को उन्होंने सूंड़ पकड़ कर घसीट कर सैन्य–शिविर तक पहुँचाया और उसे मगधराज के उपहार के रूप में लाकर मथुरा की गजशाला में बांध दिया है। महाराज ने ज्येष्ठ पुत्र की ओर देखा। कंस ने संकोच से सिर झुका लिया। महाराज ने महर्षि गर्ग को बुलवाया और उसी समय उस सम्बन्ध को सविधि स्वीकृति दे दी। मगधराज ने मथुरा में ही अपनी दोनों कन्यायें अस्ति और प्राप्ति का परिणय कंस के साथ कर दिया। मथुरा-नरेश को गिरिव्रज तक बारात ले जाने का कष्ट भी नहीं करना पड़ा। दहेज में मगधराज ने इतने गज दिये कि मथुरा की गजसेना, जो नगण्य प्राय: थी, भारत की प्रमुख गजसेनाओं में गणना करने योग्य हो गयी। युवराज कंस के आग्रह से ही उनकी बहिनों–चचेरी बहिनों का भी विवाह वसुदेव के ही कुल में हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज