भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
वृष्णि वंश
विदर्भ के दूसरे पुत्र क्रथ की वंश-परम्परा का क्रम है; क्रथ से कुन्ति, फिर क्रमश: धृष्टि, निवृत्ति, दशार्ह। इन महाराज दशार्ह के कारण यह वंश दाशार्ह कहा जाता है। दशार्ह से आगे व्योम, जीभूत, विकृति, भीमरथ, नवरथ, दशरथ, शकुनि, करंभि, देवरात, देवक्षत्र और उनके मधु। इन मधु के कारण आगे वंश का एक नाम मधुवंश या माधवीय हो गया। मधु से क्रमश: अनु, पुरुहोत्र, आयु और उनके सात्वत, जिनके कारण उनके वंशज लोग सात्वतीय कहे जाते हैं। इन महाराज सात्वत के एक पुत्र क्रोष्टा (वृष्णि) के वंश में श्रीकृष्ण और दूसरे पुत्र अन्धक के वंश में महाराज उग्रसेन हुए। महाराज क्रोष्टा के पुत्र देवमीढ और उनके पितामह-शूरसेन जी। उनसे आनक दुन्दुभि वसुदेव जी उत्पन्न हुए। महाराज ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्रों को शाप दे दिया था कि वे राज्य सिंहासन के अधिकारी नहीं होंगे। उनके पुत्रों की सन्तान के लिए तो यह शाप नहीं था; किन्तु पीछे यह परम्परा बन गयी कि इस वंश में सिंहासन छोटे राजकुमार को प्राप्त होता रहा। इसीलिए मथुरा के अधिपति महाराज सात्वत के सबसे छोटे पुत्र अन्धक हुए। उनसे बड़े पुत्रों ने सिंहासन स्वीकार नहीं किया। क्षत्रिक कुमार सेवा, वैश्यवृत्ति या ब्राह्मणवृत्ति तो अपना नहीं सकते। उन्हें जीवन-यापन तो बाहुबल से ही करना है। अग्रज या अनुज प्रशासक हो तो उनकी सेना तथा प्रदेश शेष भाइयों का आश्रय बन जाता है। इसी वंश में सहस्रवाहु कीर्तवीर्य अर्जुन हुए - लोकरावण रावण भी पराजित ही हुआ उनसे; किन्तु अत्रेय भगवान दत्ता के अनुग्रह से योगेश्वर्य प्राप्त करके भी उन्होंने त्रिभुवन पर आधिपत्य स्थापन की आसुर परम्परा नहीं अपनायी। भौतिक ऐश्वर्य मानव को प्रमत्त कर ही देता है। अर्जुन के प्रमाद ने-महर्षि यमदग्नि की होमधेनु के अमित प्रभाव के लोभ ने उन्हें प्रमत्त कर दिया और भगवान परशुराम के परशु की बलि बनना पड़ा उन्हें। पिता के वध से उनके पुत्रों की बुद्धि क्रोध के कारण नष्ट हो गयी और महर्षि की निष्करुण हत्या करके वे भी परशुराम क्रोधानल में भस्म हो गये। पिता के वध से भगवान परशुराम क्रोध की मूर्ति बन गये थे। वे क्षत्रिय मात्र का संहार करने लगे थे। इक्कीस बार उन्होंने ढ़ूढ़-ढ़ूढ़ कर क्षत्रियों का विनाश किया। भूभार-हरण के लिए उनको एक बहाना मिल गया था। अर्जुन के शेष पुत्रों को माहिष्मती पुरी छोड़नी पड़ी। वे प्राण बचाते भागने के लिए विवश थे। अन्तत: उनकी सन्तान माथुर मण्डल में आकर बस गयी और इस प्रकार मथुरा यादव राजधानी बनी। यद्यपि महाराज ययाति ने शाप की परम्परा-रक्षा केलिए अग्रज सिंहासन नहीं स्वीकार करते थे; किन्तु उनका तथा उनके वंश का गौरव सुरक्षित रहा यहाँ। वे श्रेष्ठ माने जाते रहे और सिंहासनासीन होने पर भी नरेश अपने अग्रजों के सम्मुख अवनत ही रहते थे। महाराज अर्जुन के केवल पांच पुत्र बच गये थे भगवान परशुराम के महासंहार से। उनमें से जो मथुरा आकर बसे, उनमें अनेक गोत्र हो गये। जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु ओर उर्जित - ये पांच बचे थे। उनमें से जयध्वज के पुत्र तालजंघ हुए और उनका वंश तालजंघ कहा गया। माथुर मण्डल में केवल शूरसेन और मधु आये, अत: यहाँ प्रारम्भ से माधव और शौरसेनीय-ये दो यदुवंशी कुल रहने लगे। भगवान् वासुदेव को शौरि तो पितामह शूरसेनजी के नाम से कहते थे। वे माधव वंशी हैं। वंश में महाप्रतापी पुरुष के होने पर उस पुरुष के नाम से आगे गोत्र बदल जाता है, यह परम्परा महर्षियोंं ने बहुत विचार पूर्वक निश्चय की होगी। इसका सबसे अधिक लाभ यादवों ने उठाया। यहाँ यदुवंश में माधवीय, वृष्णि, कुक्कुर, भोज आदि वंशी शाखाएँ बन गयीं और इस प्रकार गोत्र परिवर्तित हो जाने से परस्पर विवाह करने का सुयोग पा गये। उन्होंने बहुत कम अपनी कन्यायें माथुर मण्डल से बाहर विवाहीं। वे अपने यहाँ ही गोत्रान्तर के सुयोग के कारण विवाह करते रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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