भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
मथुरापुरी
सम्पूर्ण धरा ही श्रीहरि की है। स्थल विशेष में उनके सन्निहित रहने का तात्पर्य? वे सर्वव्यापक तो सर्वत्र ही सदा सन्निहित हैं। अन्तर्यामी समस्त अन्त:करण में हैं; किन्तु सर्वत्र उनका प्रभाव कहाँ प्रकट होता है? सूर्य का प्रकाश सर्वत्र पड़ने पर भी उनका प्रतिबिम्ब तो जल या आदर्श (दर्पण) में ही दीप्त होता है। इसी प्रकार जिस देश में, काल में, पदार्थ में सत्वगुण का अधिक प्राबल्य है; वहीं सर्वव्यापक परमात्मा का सान्निध्य अधिक पाया, अनुभव किया जा सकता है। ऐसा न हो तो गंगाजल, तुलसी, शालिग्राम, नर्मदेश्वर प्रभृति के महात्म्य का क्या अर्थ रह जाये? भगवद्धाम और भगवान सर्वव्यापक हैं। यह सम्पूर्ण जगत भगवान के तथा भगवत्स्वरूप भगवध्दाम के भीतर ही है। भगवद्धाम का प्राप्ति का अर्थ देशान्तर में जाना नहीं है। इस स्थूल प्राकृत-प्रपंच की स्थूलता से सूक्ष्मता में प्रवेश ही करना है। परमात्मा की उपलव्धि अन्तर्मुख होने से होती है। प्रकृति त्रिगुणमयी है और सृष्टि काल में इसमें गुणों का वैषम्य रहता है। अत: जहाँ तमोगुण की प्रधानता होती है, वहाँ स्थूलता और अन्धकार अधिक होता है। जहाँ रजोगुण की प्रधानता होती है, वहाँ गति, क्रिया, उद्बेग अधिक होता है। जहाँ सत्वगुण की प्रधानता होती है, वहाँ निर्मलता, प्रकाश, शान्ति अधिक होती है। वहाँ की निर्मलता में सर्वत्र व्यापक परमात्मा अधिक सन्निहित-अधिक सुगमता से प्राप्त रहता है। जीव श्रीहरि का अंश होने पर भी अनादि काल से उनसे वियुक्त होकर माया-अविद्या के कारण भवाटवी में भटक रहा है। उस पर करुणा करके उन अकारण कृपालु ने देश में, काल में, पदार्थ में ऐसे अवकाश-ऐेसे अवसर छोड़ रखे हैं कि उनका आश्रय भी जीव किसी प्रकार प्राप्त कर ले तो जन्म-मरण के इस चक्र से अन्तत: परित्राण का मार्ग उसे मिल जाय। श्रीभगवान का सगुण-साकार विग्रह अप्राकृत, सच्चिदानन्दघन होता है। उनका दर्शन, स्मरण, स्पर्श सब प्राकृत प्राणी और पदार्थ को असाधारण पावनकारी शक्ति प्रदान कर देता है। कोई महापुरुष जहाँ एक क्षण के लिए भी चरण रख देता है, दीर्घ काल तक वहाँ की भूमि में अन्य प्राणियों को पवित्र करने की शक्ति आ जाती है। महापुरुष के जन्म स्थान, उपासन-स्थान, देहत्याग स्थान और विशेष महत्व की क्रीड़ाओं के स्थान ही तो तीर्थ हैं। अनन्त काल तक वहाँ भूमि में–जल में, तरु-लता, शिलादि में पापहारी-मंगलकारी शक्ति विद्यमान रहती है। जहाँ परमात्मा अवतार लेते हैं, क्रीड़ा करते हैं, जहाँ-जहाँ उनके श्रीचरण पड़ते हैं, वे क्षेत्र सर्व मंगलकारी तीर्थ हैं, यह सत्य तो सभी सनातनधर्मी स्वीकार करते हैं। अनन्त काल से इसीलिए श्रद्धालुजन तीर्थ यात्रा करते हैं। कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ कल्प-कल्प में श्रीहरि का अवतार होता है। भगवध्दाम वहाँ उस समय धरा से एकत्व स्थापित करके व्यक्त हो जाता है। यह भगवद्धाम का सान्निध्य पाकर भूमि का वह प्रदेश सदा के लिए दिव्य हो जाता है। सप्तपुरियां ऐसे ही स्थल हैं। पाद्मकल्प के स्वायम्भुव मन्वन्तर में मनु के पौत्र ध्रुव ने परमपावन मधुवन में तप किया था। इस श्वेतवाराहकल्प के त्रेता में मधु दैत्य के पुत्र लवणासुर ने यहाँ निवास बना लिया। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के छोटे भाई शत्रुघ्न कुमार ने लवण का वध करके यहाँ मथुरा नाम से अपनी राजधानी बसायी। यह नित्य तीर्थ है धरा पर। सम्पूर्ण व्रज भूमि धरा का हृदय है। भूदेवी भगवान नारायण की नित्य प्रिय हैं, उनके हृदय-प्रदेश में नित्य वे सच्चिदानन्द प्रभु विराजते हैं, इसमें तो कुछ अद्भुत नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
अ
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज