भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अपनी बात
बचपन में कविता पुस्तकें पढ़ता था तो एक विचार मन में आता था-काव्यों के सर्वोत्तम पद्यों का ऐसा संकलन किया जाय कि उससे एक श्रीकृष्ण-चरित बन जाय। लेकिन पीछे लगा-ऐसा करना मूल रचनाकारों के साथ कदाचित अन्याय होगा; क्योंकि कुछ परिवर्तन तो करना ही पड़ता। अब जब हाथ में कम्पन आरम्भ हो गया, दूसरे सब लेखन-सम्पादन छोड़ दिये, श्रीकृष्ण-चरित को लेखनी की अन्तिम कृति बनाने का प्रयत्न करने बैठा हूँ। यह लेखनी मुझे जिससे मिली है, जिसके चरित से लेखन प्रारम्भ किया है, उसी के चरित से समाप्त करने की साध स्वाभाविक ही है। लेकिन जानता हूँ कि अब तक जिसने लिखवाया है, वह पूरे मन से साथ देगा, तभी यह चरित कुछ बन पावेगा। प्रारम्भ से पूर्व ही जानता हूँ कि यह चरित भी हृदय को सन्तुष्ट नहीं कर पावेगा; क्योंकि चरित के सौष्ठव का छुद्रतम अंश तो हृदय में ही आ पाता है और जो हृदय में आता है, उसका बहुत ही छोटा अंश लेखनी शब्दों में उतार पाती है। अनन्त का दोष ही यह है कि वह अपना अन्त नहीं पा सकता। कन्हाई अपना है, यह साथ देगा ही; किन्तु यह चाहे तब भी तो इसका चरित शब्दों में पूरा व्यक्त नहीं हो सकता। जो शब्दातीत है, शब्दों में वह कितना आवेगा? दूसरी बात- श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुष हैं। लीला-पुरुषोत्तम हैं। मर्यादा-पुरुषोत्तम श्री राम के चरित को तो मर्यादा में रहना था; किन्तु लीला-पुरुषोत्तम की लीला तो कोई बन्धन नहीं मानती। वे पूर्ण पुरुष हैं- इसका अर्थ ही है कि जिस किसी दृष्टि से देखा जाय, उनका चरित उसी ओर सर्वोपरि दिखेगा। श्रीकृष्ण परमात्मा-सर्वेश्वर, श्रीकृष्ण अवतार-नारायणांश, श्रीकृष्ण योगेश्वर, श्रीकृष्ण आदर्श राष्ट्र नायक, श्रीकृष्ण परम ज्ञानी, श्रीकृष्ण उत्तम गृहस्थ; यही नहीं, श्रीकृष्ण पूरे कूटनीतिज्ञ, श्रीकृष्ण पूरे विलासी आदि चाहे जो दृष्टिकोण आप बना लें, श्रीकृष्ण उसी में सिरमौर दीखेंगे। उनके चरित में वही दृष्टि पूर्णता प्राप्त कर लेगी। ऐसी अवस्था में श्रीकृष्ण का चरित सम्यक कैसे लिखा जायेगा? चरित तो कोई लेखक एक ही दृष्टिकोण से लिखेगा। अब इस चरित की बात। इसे मैं चार भागों में लिख रहा हूँ।
इस प्रकार विभाजन का कारण है। श्रीकृष्ण के दो मुख्य रूप हैं-
श्रीमद्भागवत को ध्यान से पढ़ने पर लगता है कि शारीरिक दृष्टि से भी श्रीकृष्ण के दो रूप हैं-
मथुरा में नन्दबाबा के रहने तक ही श्रीकृष्ण द्विभुज रहे हैं। देवर्षि नारद ने कालयवन को श्रीकृष्ण का रूप बतलाया, वह चर्तुभुज रूप है; और किसी की हुलिया वह बतलायी जाती है, जो रूप उसका सदा रहना हो। वासुदेव सदा चर्तुभुज न रहते तो उनकी नकल करने के लिए पौण्ड्रक तथा शृगाल अपने दो कृत्रिम भुजाऐं न लगाये रहते। मथुरा से द्वारिका और हस्तिनापुर तक श्रीकृष्ण चर्तुभुज हैं। वे वासुदेव हैं, लोकनायक हैं और पुराण-महाभारत में ऋषियों की वाणी में नारायण के अंश[1] हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नर-नारायण में से नारायण
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