भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
श्रीरणछोड़राय
म्लेच्छ सेना नायकहीन हो चुकी थी। ये यवन सैनिक दीर्घाकार थे, बहुत स्फूर्तिवान एवं अनुशासित थे, किंतु साधारण अस्त्र – शस्त्रों को लेकर कोई सेना दिव्यायुधों का प्रतिकार कैसे कर सकती है ? सो भी श्रीकृष्ण का सहस्रार सुदर्शन चक्र और हलधर का मुशल – इनकी प्रतिकार करने योग्य दिव्यायुध भी त्रिभुवन में कहाँ किसी के पास है। म्लेच्छ सेना मर मिटी। कोई सैनिक भाग नहीं सका। चक्र जब चल पड़ता है, कोई भाग कैसे सकता है ? उसने सैनिकों और अश्वों के खंड खंड कर डाले। कौमोदकी और मुशल एक ओर से पीटते चले गए । तीन करोड़ सैनिक और उनके अश्व, एक भी नहीं बचा। शवों से पृथ्वी पट गई। रक्त की सचमुच सरिता बह चली। अस्त्र – शस्त्र, शिरस्राण कवच, ढालें – युद्धभूमि की वीभत्सता कल्पना से परे है। ऊंट, खच्चर, छकड़े और भारवाही सेवकों की एक बड़ी दूसरी सेना भी थी कालयवन के साथ। सुदूर उत्तर से भारत तक आने के लिए, दीर्घकालीन युद्ध के लिए यवनराज भरपूर अन्न, वस्त्र, शस्त्रादि, औषधियां तो लाया ही था, बहुत अधिक स्वर्णराशि भी लाया था। सैनिकों को समय पर वेतन देता रहता था। जो भी सामग्री आवश्यक हो क्रय करता था। मज़दूरों को स्थान – स्थान पर मज़दूरी देता था। इस सबके लिए प्रचुर स्वर्ण राशि साथ थी। इस सब सामग्री को ढोने के लिए व्यवस्था तो रखनी ही थी। श्री कृष्ण – बलराम ने इस भारवाही दल को विवश किया कि वह उनके निर्देश के अनुसार सब सामग्री लेकर चले। पराजित सेना के धन, पशु, अन्नादि और सेवकों पर भी विजयी का स्वत्व सदा से स्वीकृत है। यवन सेना मार दी गई। अब जो विजयी हुए उनकी कृपा पर जीवन है उस सेना के साथ आए सेवकों का। वे सब चुपचाप निर्दिष्ट दिशा में वाहनों तथा सामग्री को लेकर चल पड़े। मथुरा में तो कोई था ही नहीं – पराजित पशु या पक्षी तक नहीं। अपने आश्रितों में एक को भी श्रीकृष्ण शत्रु की दया पर कैसे छोड़ सकते थे? दोनों भाइयों ने सूनी मथुरा छोड़ी। ऐसी मथुरा जिसके चारों और दूर – दूर तक शवों की ढेरी लगी थी। जहाँ यमुना – जल रक्त मिलने के कारण स्पर्श के भी अयोग्य बना रहा पर्याप्त समय तक। जहाँ गिद्ध, शृगाल आदि के झुंड के झुंड मंडराने लगे थे और नगर के सूने भवनों में उन्होंने आवास बना लिया। जहाँ बहुत दूर तक सड़ते शवों की दुर्गंधि के कारण पहुँचना शीघ्र ही अशक्य हो जाने वाला था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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