भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कालयवन
शाल्व ने जरासन्ध का संदेश सुनाया–परम दुर्जेय वासुदेव राजाओं को बड़ा कष्ट दे रहे हैं। मैंने उन पर सत्रह बार चढ़ाई की। अंतिम युद्ध गोमन्तक पर्वत पर हुआ। इसमें कृष्ण बलराम दोनों भाई पैदल ही थे, किंतु बिना किसी सहायक के उन्होंने मेरी तेईस अक्षौहिणी सेना मार दी। ब्रह्मा की आकाशवाणी ने रोका, नहीं तो बलराम के हाथों में उठा मुशल मेरी कपाल क्रिया करने ही जा रहा था। तुम यादवों के लिए अवध्य हो, यह वरदान तुम्हारे पिता को भगवान रुद्र ने दिया है। तुमसे टक्कर लेकर श्रीकृष्ण नष्ट हो जाएंगे। हम कायर नहीं हैं। हम सब जितनी भी सेना संभव है, लेकर आ रहे हैं। तुमसे हम सहायता चाहते हैं। समय पर शीघ्र आकर सहायता करके हमारी मित्रता स्वीकार करो। शाल्व ने कहा–यह मगधराज का संदेश मैंने सुना दिया। आप विचार करके जो उचित जान पड़े, मुझे बतला दें। मगधराज और बहुत से राजाओं ने मुझसे अनुरोध करके मुझे सम्मानित किया है। संकट में पड़े लोगों की सहायता की पुकार अनसुनी कर दे–ऐसे पुरुष के सामर्थ्य को धिक्कार! मैं स्वयं भी त्रिलोक में जो अजेय हो, उससे युद्ध करने को उत्सुक हूँ। देवर्षि नारद ने पूछने पर कहा कि वासुदेव ही ऐसे अजेय पुरुष हैं। वरदान से मैं रक्षित भी हूँ। मेरी पराजय भी हुई तो वह विजय के समान ही होगी। मैं आज ही मथुरा की ओर प्रस्थान करूंगा। कालयवन इतनी शीघ्रता करेगा, यह आशा शाल्व को नहीं थी। उस यवनराज ने तो हवन किया, ब्राह्मणों को दान दिया और प्रयाण की घोषणा कर दी। शाल्व उससे विदा लेकर विमान में बैठा। मगधराज और दूसरे सहायकों को भी शीघ्र सूचना देनी थी उसे। यवन वाहिनी में शक, तुषार, दरद, पारद, शृंगाल, खस, पहृव प्रभृति सब यवन जातियां थीं। हिमालय के पर्वतीय म्लेच्छ, डाकू, लुटेरे भी साथ हो गए। स्वर्ण देश भारत को लूटने का ऐसा सुयोग वे कैसे छोड़ देते। इस म्लेच्छ वाहिनी में गज सेना नहीं थी। पैदल भी नहीं थे। रथ भी गिने–चुने थे। केवल तीव्रगामी अश्व और ऊंट, खच्चरों की पंक्तियां थीं, जिन पर अन्न, जल तथा अपार धन लदा था। इतनी लंबी यात्रा में सैनिकों की दीर्घकाल तक सुव्यवस्था बनाए रखने को कालयवन प्रस्तुत होकर चला था। दुर्गम पर्वत, नदियां, मरुस्थल मार्ग में थे। किंतु अश्वारोही म्लेच्छसेना इन सब बाधाओं में विचरण की अभ्यस्त थी। कालयवन साक्षात काल के रूप में प्रख्यात था। उसके पथ में कोई बाधक बन कर मरने को प्रस्तुत नहीं था। कालयवन ने भी कहीं संघर्ष करने से अपने सैनिकों को रोक दिया था। उसका कठोर आदेश था–किसी से कोई वस्तु मूल्य दिए बिना न ली जाए। जिन लोगों से मार्ग में सेवा ली जाए, उन्हें पर्याप्त पारिश्रमिक दिया जाए। सेना के सञ्चरण से जिनकी भी क्षति हो, उन्हें बिना मांगे क्षतिपूर्ति दे दी जाए। उनकी सेना को अन्न, रस, फल, मेवे तथा पशुओं के लिए घास प्रसन्नतापूर्वक पथक लोग देते रहे। जो उचित मूल्य देता हो, उसके समीप आवश्यक सामग्री लोग स्वयं पहुँचा देते हैं। अनेक भूपतियों ने सत्कार किया उसका। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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