भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
द्वारिकापुरी
इस समय शत्रु हमसे पराजित हो चुके हैं, किंतु वे हार कर बैठ जाने वाले नहीं हैं। शत्रु सुगमता से यहाँ पहुँच सकते हैं। मथुरा उत्तम दुर्ग नहीं है। बार–बार आक्रमण करने वाले शत्रु से सुरक्षा दें सके, ऐसा दुर्गम दुर्ग चाहिए हमें। श्रीकृष्ण बोल रहे थे, किंतु सबको लग रहा था कि उनके हृदय की बात ही ये भगवान वासुदेव कह रहे हैं। मथुरा छोटा नगर है। यहाँ नगर–परिखा के भीतर रहने को हम विवश हैं और अब यहाँ नवीन भवन बनाने को स्थान नहीं हैं। हमारे सैनिक युवक हैं, अविवाहित हैं। स्वयं मेरे भाइयों की संख्या अब पर्याप्त है। इन युवकों का विवाह करना है तब इन्हें, इनके परिवार को भवन देना होगा। समस्या यह सबकी बन चुकी है। सबके पुत्रों को नवीन भवन चाहिए। संकोचवश ही लोगों ने अब तक नहीं कहा, क्योंकि स्वयं भगवान वासुदेव पिता के सदन में रहते हैं तो अपने पुत्रों के लिए भवन मांगे कैसे जाएं, लेकिन ऐसे कब तक काम चल सकता है? सबके नेत्रों में प्रशंसा का भाव आया–ऐसा स्वामी चाहिए जो बिना कहे अपनों की, प्रजा की आवश्यकता देख ले–देख लिया तो पूर्ण करने की कोई योजना हुए बिना ये बोलने थोड़े ही उठे हैं। हमारा कोष भरा है। हमारे पास वाहन पर्याप्त हैं। हम स्थानांतरण करें, इसमें कोई कठिनाई नहीं है इस समय। श्रीकृष्ण ने अपना निर्णय सुना दिया–आप मुझे क्षमा करें। मथुरा के सभी निवासी मेरे अंग हैं। मैं इनमें से एक को भी अपने से पृथक नहीं करना चाहता, अत: कुछ लोगों को अन्यत्र बसाने की बात में सोच भी नहीं सकता। मैं दूसरी पुरी ही बसाना चाहता हूँ। आप सब चलेंगे वहां? हम आज इसी समय चल देने को प्रस्तुत हैं। एक स्वर सबका–आपसे पृथक हम नहीं रहना चाहते। रथ, अश्व, छकड़े जुड़ने लगे। सबने दिन भर प्रस्थान की सज्जा की। रात्रि में योगमाया ने सबको द्वारिका पहुँचा दिया समस्त उपकरणों, पशुओं आदि के साथ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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