भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
द्वारिकापुरी
आप अभी से अपनी तटीय भूमि उत्ताल तरंगों से अन्तस्त करते रहने की सोचने लगे? विश्वकर्मा ने सम्मित व्यंग्य किया–मैं तटों को इतना दृढ़ कर दूँगा कि आपका यह प्रयास सफल नहीं होगा। आप जानते ही हैं कि शांत और उग्र दोनों मेरी सहज मुद्रा होने से ही मेरा नाम समुद्र है। सागर ने कहा–मेरे स्वामी मेरे मध्य इस पुरी में निवास करेंगे। उनकी सेवा में मेरी दोनों मुद्राएं भी तो सार्थक होनी चाहिए। जब वे और उनके जन स्नान करना चाहेंगे, मुझ पर विहार करने की इच्छा करेंगे, यह सेवक अपनी शांत मुद्रा सफल कर लेगा, किंतु उन्हें यहाँ सुरक्षा भी तो चाहिए। मेरी उग्रमुद्रा–उत्ताल प्रचंड तरंगें प्रहरी बनेंगी आवश्यक होने पर पुरी को। तट उनका वेग सहन करे–ऐसा तो होना ही चाहिए। विश्वकर्मा ने मन में ही एक मानचित्र बनाया। उनका वह मानस चित्र पूरा हुआ और संकल्पित स्थल से समुद्र का जल पीछे हट गया। समस्त जल जीव सागर समेट ले गया। स्वच्छ, समतल भूमि बनाकर छोड़ी उदधि ने। आप मुझ पर भी कुछ अनुग्रह करें। विश्वकर्मा इस समय लोक पालों के लिए भी आदरणीय हो गए थे। इंद्र, वरुण, कुबेरादि सब भूल गए कि देश शिल्पी उनके सेवक हैं। वे प्रार्थना करने लगे–विश्वेश्वरेश्वर की सेवा में हमारे भी कुछ उपकरण आप प्रयोग कर लेंगे तो हम अपने को धन्य मानेंगे। हमारे अपने सेवक आपके समीप पहुँचा देंगे, जो कुछ आप आज्ञा देंगे। पृथ्वी पर, समुद्र में, स्वर्ग में भी जो श्रेष्ठतम सामग्री नगर भवन निर्माण की है, देव शिल्पी के ध्यान से बाहर नहीं रह सकती। उनके सेवक उसे उपस्थित कर ही देंगे। किंतु यहाँ तो वरुणदेव कह रहे थे–सागर जल में थोड़ी ही दूर पर मेरे बलवान सेवक तिमि, तिर्मिगल, मकरादि के रूप में रहेंगे। आवश्यकता पड़ जाए–कोई प्रतिपक्षी जल के मार्ग से दुस्साहस करे आने का, कुशस्थली में किसी को क्यों चिंता करनी पड़े। आप इतना कर दें कि ये सेवक तट के समीप तक आ सकें और सुरक्षा सेना का सौभाग्य प्राप्त कर सकें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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