भूभार क्या ?
यही अवसर परम प्रभु के अवतीर्ण होने का होता है। अधिक सघन प्रबल सत्वगुण अन्त:करण को शुद्ध कर देता है और तब उसमें अन्तर्मुखता, अन्तर्यामी वासुदेव का सान्निध्य स्पष्ट हो जाता है। जन्म-जन्म के संस्कारों के अनुसार ऐसे शुद्धान्त:करण जन योग, ज्ञान या उपासना का पथ अपना लेते हैं।
प्राय: सर्वत्र व्याप्त तमोगुण प्रधान रजोगुण- जिनमें ये व्याप्त हैं, उन्हें सत्वगुण- शुद्ध सत्वगुण सहन कैसे हो सकता है? फलत: उनके द्वारा वे साधक-संत पीड़ित होने लगते हैं। उन पर अत्याचार होने लगता है। आसुरजन सात्त्विकों का समूलोन्मूलन करने पर उतारू हो जाते हैं। उनका यह उत्पीड़न-भगवती धरा को अपने ‘श्रेष्ठतम’ सर्वाधिक प्रिय पुत्रों की पीड़ा असह्य हो उठती है। यह धरा का सबसे अहस्य भार है।
विशुद्ध सत्त्व-शुद्धान्त: करण जनों में जो योगी हैं, ज्ञानी हैं- उन्हें सुरक्षा चाहिए- भले वे अपने शरीर से निरपेक्ष हों और देह का मानापमान, देह की पीड़ा उन्हें व्यथित न करे, सर्वेश्वर को उनकी सुरक्षा सबसे अधिक आवश्यक लगती है।
जो धर्म पुरुषार्थी बन जाते हैं शुद्धान्त:करण होने पर, पूर्व-पूर्व के संस्कार जिन्हें तप यज्ञादि में लगाते हैं- वे अपने धर्म की रक्षा के आग्रही होते हैं और उनका तप यज्ञ सबसे अधिक असह्य होता है आसुरता को। क्योंकि योगी ज्ञानी तो आत्मरत, आत्मतृप्त, एकान्तप्रिय हैं। उन्हें कोई कैसे रहता है या रहे, इसकी चिन्ता नहीं। सब अपना स्वरूप या सब भगवन्मय, तो उसमें पापी-असुर या पुण्यात्मा क्या? अत: ऐसों की असुर भी उपेक्षा कर सकते हैं, किन्तु धार्मिकों का यज्ञ-तप सीधे आसुरता पर- तमोगुण पर आघात करता है। अत: इस वर्ग को सबसे अधिक उत्पीड़ित होना पड़ता है और यह चुप-चाप सहन नहीं करता। यह पुकारता है सर्वेशको। इसके आह्वान की उपेक्षा कब तक धर्म का परम प्रभु कर सकता है।
सबसे बड़ी बात। जब सत्वगुण किन्हीं अन्त:करणों में प्रबल होता है जन्म-जन्म का पुण्योदय और भगवत्कृपा का संयोग हो जाता है- भक्ति देवी आ बैठती हैं उन अन्त-करणों में। ऐसे महाभाग जब आग्रह कर लेते हैं- वह सर्वश्वरेश्वर हमारा पुत्र, हमारा मित्र, हमारा पिता, हमारा पति......। वह अनन्त प्रेमार्णव विवश हो जाता है और ऐसे महाभागवतों पर आसुरता दृष्टि उठावे- यह उसे भी असह्य हो जाता है। भगवती धरित्री को ऐसे जन अपने चरण स्पर्श से धन्य करते हैं। इन पर विपत्ति आवे- धरा के लिए यह भार सर्वथा ही असह्य है।
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