भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
शृगाल वासुदेव
"देवि! मैं आपका कुल-बंधु हूं, शत्रु नहीं।" मेघ गंभीर वाणी से कृष्ण चंद्र ने अभयदान दिया– "यह तो मेरे लिए भी पुत्र तुल्य है। शृगाल ने स्वयं मुझ पर आक्रमण किया था। वह मृत्यु स्वयं वरण करने आया। मैं यहाँ रोष करके–शत्रु बन कर आया नहीं। तब भी मैं मित्र बन कर आया था। अब भी मैं मित्र हूँ इस राज्य का।" "आप नगर में पधारें। अपने मंत्रियों तथा कुल पुरोहितों को अभी राजसभा में बुलावें। मैं आ रहा हूँ। इस बालक का राज्याभिषेक मैं स्वयं अभी करुगां। अभिषेक के पश्चात यह अपने पिता की उत्तर क्रिया करेगा। आप इसकी संरक्षिका बनकर रहें, इतना आपसे मेरा अनुरोध है।" "आप सर्वेश्वर की जैसी आज्ञा।" महारानी ने पति के शव के साथ सती होने का विचार त्याग दिया। उसी दिन मध्याह्न में शक्रदेव को सिंहासन पर बैठा कर श्रीकृष्ण ने अभिषेक किया। चेदिराज दमघोष ने आज्ञा ली और यहीं से अपने नगर को सेना सहित चले गए। श्री बलराम के साथ श्रीकृष्ण चंद्र चेदिराज से प्राप्त रथों पर बैठ कर, शक्रदेव तथा रानी पद्मावती से विदा लेकर मथुरा आए। शकदेव ने पिता के शरीर का अग्नि संस्कार श्रीकृष्ण की उपस्थिति में ही कर दिया था। अब उन्हें उत्तर क्रिया करनी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज