भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
युद्ध ! युद्ध ! युद्ध !
'छि:! मगधराज की कन्या होकर तुम दोनों इस प्रकार रोती हो।' जरासन्ध ने उन्हें उठाया। उनके अश्रु पोंछे–'अब केवल तुम्हारा ही प्रश्न कहाँ रहा। अब तो मुझे अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना है और तुम दोनों मुझे मेरे वज्र निश्चय को जानती हो।' सचमुच जरासन्ध वज्र निश्चय था। वह हारना नहीं जानता था। विफल होकर भी साहस खो देना–उद्योग से विरत होना उसके स्वभाव में नहीं था और उसके साथी नरेशों के लिए भी दूसरा मार्ग नहीं था। वे बलराम–कृष्ण का यादवों का उत्कर्ष सह नहीं सकते थे। किसी भी प्रकार हो, मथुरा को पराजित ही करना था। वे असुर प्रकृति के लोग–चतुर्भुज पद्मलोचन वासुदेव के सहज शत्रु। वे कैसे सह लें कि श्रीकृष्ण धर्म का राज्य स्थापित करते चलें सब कहीं। अकेला जरासन्ध ही नहीं, उसके सब साथी अपने राज्यों में लौटते ही सैन्य एवं सामग्री संग्रह करने में लग गए। सब चाहते थे–पूरे प्रयत्न में थे कि पहले से पर्याप्त अधिक सेना एकत्र की जाए, किंतु सबकी–संघ की भी एक शक्ति सीमा होती है। एक बार में उससे अधिक जनशक्ति या धन संग्रह सम्भव नहीं हो पाता। जरासन्ध तथा उसके सहायकों के उद्योग की सम्मिलित शक्ति की सीमा तेईस अक्षौहिणी सेना थी। अथक उद्योग करते थे ये लोग प्रत्येक पराजय के पश्चात इसलिए इस सीमा को प्राप्त कर लेते थे। उद्योग किञ्चित भी शिथिल होता तो यह संख्या घट जाती है। लेकिन यह उनकी सीमा थी और सब अपनी सीमा तक रहने को विवश हैं। मथुरा के लिए जरासन्ध का आक्रमण निश्चित समय के अंतर से आने वाले किसी महारोग के समान बन गया। प्रति वर्ष यह आक्रमण होने लगा। मगधराज पावस समाप्त होते ही प्रस्थान कर देता था गिरिव्रज से। उसके साथी नरेश ससैन्य मार्ग में मिलने लगे थे। मथुरा आकर एक ही परिणाम–पूरी सेना वसुदेव के दोनों पुत्र मार देते थे। नरेश प्राण बचाकर भागते थे और जरासन्ध ने भी अब पलायन करना सीख लिया था। उसने समझ लिया था कि सब साथी भागने लगे तो एकाकी रुकने का अर्थ घोर अपमान होना है। यह भी क्या ठिकाना कि श्री बलराम उसे प्रत्येक बार छोड़ दी देंगे। वे मार दे सकते हैं–बंदी बना सकते हैं। ऐसी सम्भावना को जरासन्ध ने फिर अवसर नहीं दिया। प्रत्येक पराजय ने मगधराज को उत्तेजना ही दी। उसके साथियों का क्रोध भी भड़कता ही गया। वे शीतकाल में लौटते थे पराजित होकर। ग्रीष्म तक में सैन्य संग्रह कर पाते थे। पावस में युद्ध यात्रा सम्भव नहीं। शरदा आगमन के समय प्रस्थान करते और हेमंत के अंत में मथुरा को घेर लेते। पूरे सोलह वर्ष–सोलह वर्षों तक यह प्रतिवर्ष होने वाला जरासन्ध का आक्रमण चलता रहा। चलता तो रहा अठारह वर्ष; किंतु सोलह आक्रमण मथुरा भगवान वासुदेव की कृपा से झेल ले गई। श्री संकर्षण एवं श्रीकृष्ण चंद्र ने सोलह आक्रमणों में एक भी यादव सैनिक को आहत नहीं होने दिया। विजय श्री दोनों भाइयों का वरण करती रही लगातार। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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