भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कोल-वध
कूदा न होता कोल, अपने हाथी के नीचे ही दब मरता। वह कूदा, खड़ा भी नहीं हो सका था कि श्री बलराम की गदा पड़ी उस पर। असुर इस आघात को सह गया, किंतु तत्काल अर्न्तध्यान हो गया। उसने समझ लिया कि सम्मुख युद्ध में वह थोड़े क्षण भी जीवित नहीं रह सकता। असुर अर्न्तध्यान होकर कर क्या सकता था–आसुरी माया प्रकट करने लगा–किंतु श्री संकर्षण अकेले हों तो युद्ध में क्रीड़ा करना उनका स्वभाव नहीं है। यह तो वे तव करते हैं जब उनके अनुज साथ हों और वे क्रीड़ा करना चाहें। भगवान संकर्षण का वह अष्ट धातुमय दिव्य मुशल प्रदीप्त हो उठा। आसुरी माया टिकती उसके प्रलयंकर प्रकाश के सम्मुख? किंतु एक आघात की उसकी कामना भी पूरी नहीं हुई। बलरामजी ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए और घुमा कर पृथ्वी पर पटक दिया। कोल का अंग–अंग चिथड़े हो गया। यादव शूर एक नागरिक को लेकर वन में गए। राजा कौशारवि को संदेश मिला अपने आराध्य का। वे अश्व पर बैठ कर वन से आए। श्री बलराम जी ने स्वयं उन्हें कौशाम्बी के सिंहासन पर बैठाया। उनका तिलक किया। कौशारवि के लिए इससे धन्य दिवस और क्या होता। वे कृतार्थ हो गए अपने आराध्य एवं उनके अनुगतों का अर्चन–सत्कार करके। कुछ समय कौशाम्बी में रुकने की नरेश की प्रार्थना स्वीकार नहीं हो सकती थी। जरासन्ध कभी भी मथुरा पर चढ़ाई कर दे सकता था। अचानक यात्रा में निकले महर्षि गर्गाचार्य आ गए। उनके साथ बलराम जी गंगास्नान करके मथुरा लौटने के उद्देश्य से चल पड़े। आचार्य को लेकर ही लौटना उचित था। गंगा स्नान, दान, तीर्थ–तर्पण सब होना था–हुआ। कहते हैं कि कौशाम्बी से ईशान कोण में चार योजन दूर वह वाराह क्षेत्र है, जहाँ श्री संकर्षण ने स्नान किया। उद्धव के साथ भगवान बलराम जह्नुतीर्थ, पाण्डवों के प्रिय आहार–स्थान होते वहाँ से एक योजन दूर तपोनिरत मण्डूक देव नामक तपस्वी को दर्शन देकर कृतार्थ करने पहुँचे। उर्ध्वमुख, सूर्यदत्त दृष्टि, एक पैर पर खड़ा वह महातापस अनन्त प्रभु की कृपा प्राप्ति के लिए तपोनिरत था। उसकी तपस्या सफल हो गई उस दिन। उसे अभीष्ट वरदान देकर भगवान संकर्षण गर्गाचार्य तथा उद्धवादि के साथ मथुरा लौटे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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