भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कोल-वध
कोल प्रमत्त नहीं था। वह जानता था किसी क्षण उस पर आक्रमण हो सकता था। आर्य नरेश किसी कोल को शासनारूढ़ सहज ही नहीं सह लेंगे। कोई भी कभी भी कौशारवि की सहायता को आ सकता है। उसके कोल दूर–दूर तक फैले थे। वन में वन पशुओं से सदा सतर्क रहना उनके स्वभाव में था। केवल विचित्र ढंग से किलकारी मार कर दूर–दूर तक संवाद फैला देने की उनकी अपनी पद्धति थी। कोलों को शस्त्र सन्नद्ध होने में क्षण लगते थे। अचानक कोलों की किलकारी गूँजने लगी। शस्त्र सन्नद्ध अश्वारोहियों को कौशाम्बी की ओर आते देख लिया था उन्होंने। यह किलकारी पर्याप्त थी उनके राजा तथा साथियों के लिए। कोल नरेश अपनी पूरी सेना लेकर नगर से बाहर आ गया। कोलों की अपनी युद्ध पद्धति थी। वे सब पदाति युद्ध करने वाले थे। उनके बाण विष–बुझे थे। वे गोफन से पाषाण फेंकने में निपुण थे। उनके भाले के एक आघात में सिंह भी केवल तड़प कर शांत ही हो सकता था। वे केवल रस्सी का फंदा फेंक कर अश्वों को उलझा कर गिरा देते थे। यम उनके भल्लों की मार से भागते थे। आर्य सैनिकों का उनको किंञ्चित भी भय नहीं था। अवश्य कोल वन्य मानव थे। उनके लिए अरण्य में युद्ध करना सरल था। वे कपियों के समान वृक्षों पर चढ़ तथा कूद सकते थे। झाड़ियों में शशक के समान दुबके रह सकते थे। उनके लिए सपाट, स्वच्छ मैदान का युद्ध अनभ्यस्त था। उससे भी अधिक यह कि वे जानते ही नहीं थे कि दिव्यास्त्र क्या होते हैं। कोई उनको हल से खींच–खींच कर उनकी खोपड़ी मृशूल से चूर कर देगा–यह उनकी कल्पना से बाहर था। जब श्री संकर्षण का यह रूप उन्होंने देखा–वे भय के कारण दिशाओं में भागने लगे। वे अन्धविश्वासी लोग–उन्हें लगा कि मृत्यु का देवता मुशल लेकर स्वयं आ गया है। वे गृह, नगर आदि छोड़ कर वनों मे भाग गए। वहाँ भी उनका भय बहुत दिनों में गया। उनमें से अधिकांश भयोन्माद से मर गए या जीवन भर पागल बने चीखते–चिल्लाते रहे। उनमें उनके वंशजों में प्रवाद चल पड़ा–नगर में राजा बनने कोल जाएगा तो वन का मृत्यु देवता उसे कैसे क्षमा कर देगा? कोल को वन में रहना चाहिए, अन्यथा घोड़े पर बैठा नीलवसन मृत्यु देवता आएगा और हल से खींच कर अपने मुशल से खोपड़ी चूर्ण कर देगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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