भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
जरासन्ध का आक्रमण
जरासन्ध का व्यूह शीघ्र ही ध्वस्त हो गया। मगध राज ने असंख्य युद्ध किए और जीते हैं, किंतु आज का युद्ध–ऐसे कुम्भकार चक्र के समान घूमते वायु वेग रथ और दोनों रथों से बाणों की अनवरत वृष्टि–शत सहस्र झड़ी एक साथ चारों ओर। विशाल गज सेना–मगधराज की गज सेना भारत में अजेय मानी जाती थी, किंतु आज वही सबसे पहले अपने ही दल के लिए आतंक बन गई। सूँड कटे, दाँत टूटे, अतिशय घायल गज भागने लगे और अपने ही रथों को, अश्वों को पदातियों को रौंदने लगे। अत्यंत घायल–उन्मत्त गज दल। प्राणों के समान जिसे पाला था जरासन्ध ने, किस प्रकार कठोर–वज्र हृदय बनाकर उसे आज्ञा देनी पड़ी अपने सैनिकों को–आहत गजों को अविलम्ब मार दो। दूसरो कोई उपाय नहीं रह गया था। वासुदेव के इन दोनों पुत्रों के रथ नगर की परिक्रमा करते दौड़ रहे थे और चक्राकार गति से घूम रहे थे। इन्होंने सम्पूर्ण गज सेना को इस प्रकार आहत कर दिया कि गजों को मार न दिया जाता तो वे अपनी ही समस्त सेना को नष्ट कर देते। उन्हें तो मरना ही था। वे इतने आहत थे कि उनको किसी प्रकार बचाया नहीं जा सकता था। रथ, अश्व, मनुष्य–चारों ओर दोनों ज्योति पुञ्ज बने रथों से मृत्यु वर्षा हो रही थी। किस क्षण किसकी भुजा, पैर या मस्तक कट गया, किसका उदर फट गया, कौन दो टुकड़े होकर गिरा–किसी को देखने का अवकाश नहीं था। चीत्कार–मरते आहत कण्ठों की चीत्कार और उन्मादी भूत प्रेतों का दारुण अट्टहास गूँज रहा था चारो ओर। रथ, अश्व ही नहीं, भागते–दौड़ते पदाति सैनिक भी गिरे आहतों को कुचलते दौड़ते थे। जो गिरा–बैठने का फिर क्या काम। अपनी ही जब सुधि न रहे–जरासन्ध को भी अपनी सुधि तक नहीं रही थी। वह स्वयं कुछ समय में ही आक्रांता नहीं रह गया था। सूर्यास्त हो गया। मगधराज और उसके साथियों को मानो प्राणदान मिला। रात्रि में पीछे हट कर वे अपने शिविर पर एकत्र हुए। पहले दिन के ही युद्ध में सम्पूर्ण गज सेना समाप्त हो गई थी। कदाचित् ही कोई बचा हो कि उसे कहीं बाण न लगा हो। उपचार की समुचित व्यवस्था–यही आश्वासन था। श्री राम अपने अनुज और सैनिकों के साथ नगर में चले गए रात्रि प्रारम्भ में ही। इनके किसी सैनिक को एक भी बाण नहीं लगा था। किसी को युद्ध का किञ्चित भी अवसर नहीं मिला था। वे केवल दर्शक रहे थे। उन्हें नगरवासियों को भगवान वासुदेव का अद्भुत रण–पराक्रम सुनाना था। घेर लिया उनमें प्रत्येक को नगर के लोगों ने और वे भी पूरी रात बड़े उत्साह से सुनाते रहे। प्रभात हुआ। स्नान, संध्या, अल्पाहार। शीघ्र ही मगधराज की सेना ने नगर घेर लिया। अग्रज के साथ श्रीकृष्ण रथारूढ़ हुए। इस दिन अपने साथ जाने वाले सैनिक परिवर्तित कर लिए उन्होंने। सबको अवसर मिलना चाहिए। युद्ध न सही, युद्ध दर्शन का तो अवसर मिले सब रथवाहिनी के वीरों को। वे भी तो देखें कि रथारोही को कैसे युद्ध करना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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