भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अक्रूर के भवन में
'कौन विद्वान है–समझदार है जो आपको छोड़ कर किसी और की शरण लेगा? आप भक्त प्रिय, भक्त सम्मान दाता, सुहृद, परम कृतज्ञ–अरे आप तो ऐसे सुहृद हैं कि अपना भजन करने वाले की सम्पूर्ण कामनाएं तो पूर्ण करते ही हैं, अपने आपको भी उसे दे देते हैं।' 'योगेश्वर भी जिनकी गति को जान नहीं पाते, सुरेंद्र तो जानेंगे ही कैसे, वे आप जनार्दन सौभाग्य से आज मुझे प्राप्त हुए–आपने मुझ पर विश्वास किया। मुझे स्वीकार है, मैं जानता हूँ कि मैं पुत्र, स्त्री, धन भवनादि के मोह की रस्सी से जकड़ा हूँ, किंतु यह आपकी ही तो माया है। करुणा सागर! कृपा करके अपनी माया के इस बंधन को काट दीजिए।' अक्रूर की स्तुति सुन कर श्रीकृष्ण चंद्र हंस पड़े। उनका हास्य ही तो माया है। बोले– 'आप हमारे बड़े हैं–पितृव्य हैं। कुल में प्रशंसनीय हैं। सदा के हमारे हितैषी हैं। हम तो आपके द्वारा रक्षणीय, पोषण पालन करने योग्य हैं। आपके पुत्र हैं। हम पर आपको अनुकम्पा रखनी चाहिए।' अक्रूर जी के मन की ग्लानि–वे कंस के सेवक, कंस के दूत बने, इसका भी उपाय होना चाहिए और देवी कुंती–अपनी सगी बुआ अपने पुत्रोंं के साथ लगभग असहाय हो गई हैं। अंधे राजा धृतराष्ट्र अपने कुटिल पुत्रों के वश में हैं। अपने भ्रात पुत्र पांडवों के साथ वे समानता का–स्नेह का व्यवहार तो नहीं करते, अनेक क्रूर प्रयत्न उन पितृहीन बालकों को मारने का कर चुके हैं। उनके ये प्रयत्न शिथिल तो हुए नहीं हैं। देवी पृथा को आश्वासन मिलना चाहिए कि कोई है–कोई समर्थ है जो उनके साथ है। उनके विपत्ति उसके कृपा पूर्ण नेत्रों से वहिर्भूत नहीं और वह उपेक्षा नहीं करेगा। उस पर विश्वास किया जा सकता है। उस पर निर्भर रहा जा सकता है। अक्रूर को श्रीकृष्ण ने अपना दूत बनाया। उनसे बड़ी नम्रता से कहा- 'चाचा जी! आप हस्तिनापुर चले जाएं। पांडवों को देख आवें। उनका समाचार ले आवें। पिता के परलोकवासी होने पर वे बालक माता के साथ असहाय हो गए। सुना है कि राजा धृतराष्ट्र उन्हें ले आए और वे हस्तिनापुरा में ही रहते हैं। धृतराष्ट्र अपने शठ पुत्रों के वश में हैं। दृष्टिहीन होने से स्वयं कुछ देख भी नहीं पाते। वे पांडु पुत्रों के साथ विषम व्यवहार करते हैं। आप जाकर देख आवें कि इस समय उनकी क्या अवस्था है। उनका समाचार पाकर में अपने उन भाइयों के मंगल का प्रयत्न करूँगा।' अक्रूर को तो मानो वरदान मिला। राम–कृष्ण–उद्धव विदा लेकर, प्रणाम करके लौट आए। अक्रूर गए हस्तिनापुर और जब लौटे– पांडवों के उत्पीड़न का ही तो समाचार देना पड़ा उन्हें। धृतराष्ट्र समझने–समझाने की स्थिति में कहाँ थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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