भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उद्धव ब्रज गए
मैं सबको समझा आऊँगा। सबका शोक दूर कर आऊँगा। आप चिंता न करें। उद्धव ने शीघ्रतापूर्वक कहा। उनको लगा– श्रीकृष्ण जब वहाँ जाकर लौटने वाले नहीं हैं–उनके मन में वहाँ जीने का किञ्चित भी संकल्प नहीं रहना चाहिए। मुझे छोड़ कर उनका मन आधे पल को भी कही नहीं जाता। उनके प्राण मुझमें लगे हैं। मेरे लिए उन्होंने स्वजन, परिवार, देह के सब सुख–यह लोक–परलोक सब त्याग दिया। लोक निंदा सही, सबकी भर्त्सना सिर ली, सब धर्म मुझ पर न्यौछावर कर दिया। मैं उन्हें भूल सकूँ, यह सम्भव नहीं है। श्रीकृष्ण चंद्र विह्वल कण्ठ से कहते गए–हाय, वे मेरी गोप कुमारियाँ–मैं उनका परम प्रेष्ठ उनसे दूर बैठा हूँ। मेरे विरह से व्याकुल होकर वे बार बार मूर्च्छित होती हैं। मैं उनसे कह आया था–लौट आऊँगा! वे मुझ पर कभी अविश्वास नहीं कर सकतीं। मेरे वचनों पर विश्वास करके वे बड़े कष्ट से किसी प्रकार प्राणों को रोके होंगी। उनके आकुल प्राणों को जाकर आश्वस्त करो। मेरे स्वामी बहुत सदय, अत्यंत भक्तवत्सल हैं। अब चिंता त्याग दें। उद्धव की चिंता मिट गई है–श्रीकृष्ण चंद्र की व्यथा का यह कारण है। गोप गोपियाँ बहुत सीधे बहुत भोले लोग हैं वे। उन सीधे, पवित्र,श्रद्धालु लोगोंं को समझाना कठिन कहाँ है। वे कहाँ कर्कश तर्क कलुषित लोग हैं। उन्हें तो श्रवण समकाल ज्ञान प्राप्त हो जाएगा और ज्ञान होने पर शोक का क्या काम। उनका शोक–उनकी चिंता कठिन कहाँ हैं। उद्धव को नहीं सूझता है कि वे स्वयं व्याकुल हो उठे इस आशंका से ही कि श्रीकृष्ण मथुरा से व्रज चले जाएं तो लौटेंगे नहीं। इन पर ज्ञानी के लिए श्रीकृष्ण वियोग की सम्भावना असह्य है और व्रज के प्रेम के प्राणों का वियोग दुख ज्ञानोपदेश से दूर कर देने की आशा है इनके मन में। आप आज्ञा दें और अपने इस सेवक पर विश्वास करें। उद्धव ने दृढ़ स्वर में कहा–आपके श्री चरणों की कृपा से वहाँ सबका मनस्तापं दूर कर आऊँगा। आप इस चिंता को त्याग दें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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