भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
सैरन्ध्री सुंदरी
स्नान, वस्त्र धारण, अंगराग, आभरण, माल्य, ताम्बूल, पुष्प सज्जा–सखियों ने किसी प्रकार उसे सजा दिया है। वे भुवन-सुंदर आ गए हैं। वे स्वयं उसके कक्ष में आ गए हैं और उसे पुकारने लगे हैं। कितने मधुर स्वर में उसे बुला रहे हैं, लेकिन पता नहीं कहाँ की लज्जा आज उसे दबाए दे रही है। उसके तो पद ही नहीं उठ पाते हैं। सखियों ने उसे कक्ष द्वार तक पहुँचा दिया है और वह वहीं सिकुड़ी सिमटी खड़ी हो गई है। वे कक्ष में हैं। अपने ही सदन में उन्हें कहाँ पूछना था किसी से। वे तो सीधे आ गए और शैय्या पर बैठे स्नेह से उसे बुला रहे हैं, लेकिन सैरन्ध्री क्या करे। उसके तो पद उठते ही नहीं हैं। वे उठे–उठे वे हृदयहारी और आकर अपने करों में उसका कर ले लिया– हो गया पाणिग्रहण। कृष्ण क्या किसी का हाथ पकड़ कर छोड़ना जानते हैं। सैरन्ध्री का हाथ उनके हाथ में थम गया–वह स्पर्श–उस स्पर्श की माधुरी में वह मग्न हो गई। उसे पता नहीं, आगे क्या हुआ। यह दासी उनकी–जन्म जन्म की दासी। उन्होंने स्वीकार किया–जीवन, प्राण, देह सब कृतार्थ हो गए। मैंने कितनी–कितनी प्रतीक्षा की तुम्हारी! कमल नयन! अब मैं तुम्हारा संग छोड़ने में समर्थ नहीं। कुछ दिन तो रहो और धन्य करो इस दासी को। सैरन्ध्री का यह अनुरोध उस रस की चरम निमग्नावस्था से जागने पर–श्रीकृष्ण उसके अंतर से, सदन से जा कहाँ रहे हैं। जा कैसे सकते हैं। वह द्वार पर खडा रथ, उस पर उद्धव के साथ वे लौटे, यह नागरिकों का सत्य है। कुब्जा का सत्य तो यह नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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