भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कुब्जा की प्रतीक्षा
भगवान वासुदेव की जय! इस तुमुल घोष से मथुरा का गगन गूँज उठा। नगर के नर नारी राजपथ या राजपथ के भवनों पर एकत्र हो गए। राम कृष्ण गुरुकुल से अध्ययन समाप्त करके लौटे। वह नगर सज्जा, वह स्वागत सम्भार। वह पथ पर पुष्पों के साथ लाजा दुर्वांकुर, पुष्प एवं केशर चंदन की वर्षा, विप्रों का स्वस्ति पाठ, शंख एवं वाद्यों का तुमुलनाद– सब होता रहा, किंतु कुब्जा कहाँ जाये। वह गृह से निकले और वे यहाँ आ जाएं तो? उसे किसी महोत्सव में जाने का अवकाश कहाँ। गृह सज्जा, अर्चन सामग्री, श्रृंगार सब तो उसे प्रस्तुत रखना है–वे आते होंगे। वे गुरु गृह से लौटे हैं। माता पिता हैं, बंधु बांधव हैं, सचिव–सभासद हैं, पता नहीं, कौन–कौन हैं। उनसे मिलने को आतुर। वे बड़े सरल, बड़े उदार हैं। किसी को निराश नहीं कर पाते। उन्हें अवकाश नहीं मिला अब तक। अब आवेंगे। क्या हुआ जो कुछ दिन नहीं आ सके–अब आवेंगे ही।
उन्हें न आना होता तो आने को कहते ही क्यों? वे आवेंगे– अवश्य आवेंगे। ऐसे हो नहीं सकता कि कह कर न आवें। दिन बीतता है, रात्रि बीतती है, किंतु कुब्जा की प्रतीक्षा थकती नहीं।
कितना सम्मान दिया उन्होंने इस तुच्छ दासी को। अभी कल की ही तो बात लगती है–कितने स्नेह से अंगराग माँगा था। कैसे भोलेपन से सम्मुख आ खड़े हुए थे। उनके भाल कपोलों पर वह अंग राग लेपन। कितनी त्वरा से उसके दोनों पैर दबा लिए चरणों से और चिबुक पर उनकी अँगुलियों का स्पर्श–तनिक–सा झटका लगा और जन्म की यह कूबड़ी सीधी हो गई। सम्मुख खड़े सस्मित उन त्रैलोक्स सुंदर ने मुस्करा कर कहा था–मैं तुम्हारे घर आऊँगा। वह प्रतीक्षा कर रही है– आतुर प्रतीक्षा। उस मयूर मुकुटी की प्रतीक्षा ही तो की जा सकती है। उस चिरचपल को कोई कहाँ ढूँढे। जीव का कोई भी साधन कितना भी उत्कृष्ट, कितने भी दीर्घ काल का साधन क्या उसे आने को विवश करने में समर्थ है? युग-युग की तपस्या साधन से भी तो तपस्वी, योगीन्द्र, मुनीन्द्र उसे पाना में समर्थ नहीं होते। वही कृपा करके आवे तो मिले। उसकी-उसकी कृपा की प्रतीक्षा ही तो करनी है। उस धन्य क्षण की प्रतीक्षा–यह प्रतीक्षा ही तो समस्त साधनों का परम रहस्य है। वह अनंत करुण वरुणालय, वर अकारण कृपासिंधु, सर्वसुहृद–वह कब कृपा कृपण हुआ है। वह नहीं आया, इसका अर्थ ही है कि अभी उसको पाने की पिपासा प्राणों में जागी नहीं। प्राणों में प्यास जागे और वह न आवे, यह कभी सम्भव नहीं। मैं जाऊँगा! मैं तुम्हारे घर–तुम्हारे समीप स्वयं जाऊँगा। उसने अग्रज के, सखाओं के सम्मुख सैरन्ध्री को वचन दिया है। किसे वचन नहीं दिया है उसने। श्रुति उसकी वाणी नहीं है? जीव मात्र को ही तो उसका वचन प्राप्त है, लेकिन प्रतीक्षा-आकुल प्राणों की सतत जागरूक प्रतीक्षा कहाँ जगी। प्रतीक्षा जागे और श्याम न आवे, वह दूर बना रहे, यह उससे हो नहीं सकता। कुब्जा के प्राणों में प्रतीक्षा जाग चुकी है। उत्कट, अहर्निंशी, अकथ, निराशा को पद दलित करके प्रबुद्ध प्रतीक्षा! कब तक कृष्ण नहीं आवेंगे? वे आवेंगे ही। उन्होंने वचन जो दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज