भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गुरु-दक्षिणा
राम–कृष्ण आ रहे हैं। महर्षि के पुत्र भी रथ पर है। आश्रम में भी समाचार पहुँचा। अंतेवासी बालक दौड़े। महर्षि सपत्नीक आश्रम द्वार तक आ गए। तात! मात:! गुरु पुत्र ने उतर कर पिता–माता की पद वंदना की। माता ने अंक में लगा लिया उसे। लेकिन उनके नेत्र अपलक राम–श्याम पर लगे हैं। 'भगवन! यह वृष्णिवंशी यादव वासुदेव कृष्ण श्रीचरणों में प्रणत है।' अग्रज के साथ कृष्ण ने प्रणिपात किया। महर्षि ने दोनों भाइयों को उठा कर हृदय से लगाया। फिर वही श्रद्धा विनम्र स्वर–श्री चरणों की सेवा का कोई सौभाग्य मिल पाता। कुछ आज्ञा कर देते श्री चरण तो हम कृतार्थ मानते अपने को। जैसे गुरु दक्षिणा अभी दी ही नहीं गई। वत्स! तुम दोनों का मैं आचार्य हुआ। मेरे अंत:करण में कोई कामना शेष रह गई? गुरुदेव का यह भाव विह्वल स्वर। सचमुच श्रीकृष्ण के सेवक की भी जब समस्त कामनाएं नष्ट हो जाती है। तो इनके आचार्य में कामना रहेगी? मैंने क्या पाया? तुमने जिस प्रकार गुरु ऋण की निष्कृति सम्पादित की है, कौन समर्थ है इसमें। तुम दोनों का भुवनपावन यश लोक में विस्तीर्ण हो। तुम्हारा मंगल हो। दोनों भाइयों ने गुरुदेव को साष्टांग प्रणिपात किया। प्रणिपात किया गुरु पत्नी को। सहपाठियों को अंकमाल दी। रथ प्रतीक्षा कर रहा है। आश्रम के व्यक्ति ही नहीं, पशु पक्षी, लता तरु तक व्याकुल हो उठे हैं। स्वस्ति पाठ, आशीर्वाद, मंगल गान आज उनका सत्कार होना है अवंतिका के राज सदन में। स्नेहमयी बुआ का सत्कार स्वीकार करना है आज। अवंतिका से विदा–अद्भुत नियम है संसार का। एक स्थान एक वर्ग का दुख बहुधा दूसरे का सुख बनता है। रोयी अवंतिका राम कृष्ण के वियोग में। मथुरा में महामंगल का आगमन हुआ। राम कृष्ण गुरु गृह से लौटे ऐसा लगा जैसे युगों पर लौट रहे हैं। अब मथुरा की साज सज्जा, वहाँ के उत्साह, उल्लास, महोत्सव की सीमा कहाँ रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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