भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
प्रत्यावर्तन
राम कृष्ण का समावर्तन संस्कार–रत्न थालों की संख्या नहीं है जो नागरिक सजाए आ खड़े हुए हैं। देव–पूजन–तर्पण, सहस्रधारा–स्नान, मेखला–विसर्जन सब सविधि सम्पन्न हुए। उद्वर्तन पूर्वक राम–कृष्ण ने स्नान किया आज। अलकें तैल स्निग्ध हुईं। गौर श्याम अंग नील–पीत वस्त्रों से भूषित हुए। उष्णीय, कञ्चुक, उपानह–रत्नाभरण, वनमाला–तृप्त हो गए नेत्र गुरु देव के, गुरु पत्नी के, सहाध्यायियों के, राज माता और नागरिकों के इस भुवन सुंदर रूप की छटा की झांकी करके। वत्स राम! आयुष्मान कृष्णचंद्र! गुरु देव ने अपने शिष्यों को अंतिम शिक्षा देनी प्रारम्भ की–दोनों भाई भगवान भास्कर को नित्य अर्ध्य देना। नित्य हवन करना। ब्राह्मणों, गायों, अतिथियोंं की रक्षा करना–उनका सत्कार करना। हमारे सद्गुण ग्रहण करना। मुझमें कोई त्रुटि–च्युति हो तो उसे मत लेना। राम-कृष्ण बद्धाञ्जलि नतमस्तक खड़े हैं। कुछ कहना है–कुछ प्रार्थना करनी है, किंतु महर्षि तो मानो गुरु दक्षिणा पाकर अंतिम आदेश दे रहे हों, वे गदगद स्वर मे बोलते जा रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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