भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गुरु सेवा
राम अद्भुत हैं। वह रोके है–रोक रहा है सबको–कृष्ण का, कृष्ण के जो साथ हो उसका कुछ नहीं बिगड़ सकता। आप सब विश्राम करें। प्रात: प्रकाश होने पर हम सब चलेंगे। विश्राम! विश्राम किसे सूझता है। गुरु पत्नी तो मूर्च्छित होने लगी हैं–कृष्ण नहीं लौटा! मैंने उसे वन में क्यों भेज दिया। राम द्वार रोके न खड़ा होता तो वे एकाकी ही इस वर्षा में बन में चली गई होतीं। पावस में सूखे काष्ठ सरलता से नहीं मिलते। ब्रह्मचारी को वृक्ष पर चढ़ना नही चाहिए। तपोवन के समीप के वृक्ष तो हरित, फल भार से झुके हैं। वहाँ शुष्क काष्ठ कहाँ। दूर हो जाना पड़ा था श्री कृष्ण–श्री दाम को वन में। कृष्ण! बहुत वेग से वर्षा आ रही है। घुमड़ते घुमड़ते मेघों को देख कर श्री दाम चौंका–हम शीघ्र लौट चलें। जितना काष्ठ चयन हुआ, उसी पर संतोष करने के अतिरिक्त उपाय नहीं हैं। वर्षा आ रही है। अब लौटना ही है हम लोग मार्ग भूल गए लगते हैं! श्री दाम ने श्रीकृष्ण से कहा। अंधकार बढ़ता जा रहा है। मेघ बढ़ते जा रहे हैं। वर्षा का वेग बढ़ता जा रहा है। ऐसे में बालकों का मार्ग भूल जाना क्या आश्चर्य की बात है। भीगी अलकें। भीगे मृग चर्म। कक्ष में पलाश दंड। थोडी सी समिधाएं लिए दो कौपीन धारी बालक और वन प्रदेश, घोर अंधकार, झञ्झावायु, बार बार मेघ–गर्जन–चपलाका प्रकाश ही रह–रहकर अंधकार को चीरता है। अस्त–व्यस्त, एक-दूसरे का हाथ पकड़े एक वृक्ष से दूसरे के नीचे भागते ये दोनों बालक। मार्ग! मार्ग! मार्ग!–अद्भुत लीला है। सम्पूर्ण मार्गों का स्रष्टा और अन्वेष्य मार्ग नहीं पा रहा है आज। जल से भरा कानन, इस अंधकार में मार्ग कहाँ से मिले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज