भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गुरु सेवा
आश्रम धेनुएं हुँकार करती हैं- राम या कृष्ण के करों से तृण मिले तो उन्हें रुचे। मृग शावक और बछड़े तक दूसरों की घास सूँघते नहीं। दूध इन्हीं दोनों को दुहना है। सभी पशु पक्षी इन्हें घेरे रहते हैं। सबको दाना–चारा इन्हें देना है। तरु लताएं इन्हें सींचना है। उनके आलवाल की निराई इन्हें करनी है। इनको इतना समय पता नहीं, कैसे मिलता है। गुरु देव बराबर इन्हीं का अध्यापन करते हैं। रात्रि के प्रथम प्रहर तक इनका अध्ययन चलता है और ये सेवा! नियमों का यह प्रमादहीन पालन। साथ ही जो देखे उसके ही समीप श्रीकृष्ण उसकी सेवा में उपस्थित हैं। किसी कार्य के लिए, किसी की कोई सेवा के लिए राम या कृष्ण के पास समय न हो, सोचा ही नहीं जा सकता।
मात: कोई सेवा? गुरु पत्नी के सम्मुखि आया विप्र छात्र सुदामा। यह ब्राह्मण कुमार श्रीदाम कृष्ण से पर्याप्त घनिष्ठ हो गया है, अत: कृष्ण इसके संग उटज के पीछे छिपा आया है, यह गुरु पत्नी नहीं देख सकीं। कृष्ण सोचता है कि उससे या राम से गुरु पत्नी कोई कार्य लेना नहीं चाहतीं। उटज में सूखा इंधन नहीं है। गुरु पत्नी ने श्रीदाम से कहा। पावस में सूखा ईंधन समाप्त हो गया। अभी दिन है और गगन स्वच्छ है। गुरु पत्नी जानती हैं कि सायं काल भी राम या कृष्ण को इंधन के अभाव का पता चलेगा तो वे उसी समय वन में आ जाएंगे। इस वर्षा ऋतु का क्या ठिकाना। अत: उन्होंने कह दिया–तुम और किसी को साथ ले लो। बहुत दूर मत जाना। जो भी थोड़ी बहुत काष्ठ मिले, लेकर शीघ्र लौटना। हम पर्याप्त काष्ठ ला सकेंगे मात:। कृष्ण भी छिपा है, यह कहाँ देखा था गुरु पत्नी ने और अब तो वह उटज से बाहर दौड़ गया। कृष्ण वन में गया, वह लौटा नहीं। संभवत: दूसरे ही क्षण से गुरु पत्नी प्रतीक्षा करने लगीं। सहसा मेघ घिर आए, बढ़ने लगे। सूर्यास्त समीप आ गया। गुरु पत्नी व्याकुल होने लगीं- दोनों कहाँ गए? कहाँ रह गए? मैंने किस अशुभ मुहूर्त में आदेश दे दिया। वे उटज द्वार पर खड़ी दृष्टि लगाए हैं–कृष्ण नहीं आया। कृष्ण वन में है। महर्षि को समाचार दिए बिना मार्ग नहीं था। छात्र दूर–दूर तक जाकर देख आए। उनकी पुकार का भी कोई उत्तर नहीं देता। यह मूसलाधार वर्षा! यह रात्रि का अंधकार। श्री चरण वन में कहा भटकेंगे। प्रकाश इस झञ्झा में नहीं जा सकता। राम ने महर्षि के चरण पकड़ लिए–श्री राम के लिए कोई भय नहीं क्योंकि श्रीकृष्ण साथ हैं और श्रीकृष्ण का उनके जो साथ रहे उसका भी अनिष्ठ कभी हो नहीं सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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