भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
शिक्षण-प्रशिक्षण
‘तुम इन्हें साधारण बालक समझती हो?’ गुरुदेव ने कहा–वे मेरी विद्या को धन्य करने आये हैं। मैं समर्थ नहीं हूँ– एक ही दिन में अपना सब अध्ययन सुना नहीं सकता, अन्यथा वे कल ही प्रत्यावर्तन के योग्य हो जायें। कुछ दिन वे रहें आश्रम में, इस लोभ से मैंने केवल एक कला प्रतिदिन प्रशिक्षण का क्रम बनाया है। कुल चौंसठ दिन लगते हैं इन्हें और उसमें दो दिन व्यतीत हो गये। इतने समय में वेद, उपवेद, वेदांग, दर्शन, इतिहास पुराणादि समस्त शास्त्रों के प्रकृष्ट पारंगत हो जायेंगे।’ 'आप अभी से इन्हें विदा करने की बात सोचने लगे?’ महर्षि की पत्नी व्याकुल हो उठीं। ‘देवि! इन्हेंं रख सकना सम्भव हो तो जीवन में एक क्षण को भी इनका सान्निध्य कोई त्यागना चाहेगा?’ महर्षि गदगद स्वर बोले– ‘लेकिन योग्य अन्तेवासी को विद्या-दान में विलम्ब करना ब्राह्मण के लिए अपराध है। ऐसा पाप मैं कैसे कर सकता हूँ। जितनी मेरी शक्ति है–उतना सुना रहा हूँ। मेरी ही शक्ति का प्रश्न है। इन दोनों की धारणा-शक्ति और मेधा की कोई सीमा नहीं है। महर्षि त्रिकाल सन्ध्या, हवन, देवार्चन करते हैं और उस पर यह श्रम। प्रात: भगवान हव्यवाह को आहुतियाँ देने के पश्चात उनके भाल का स्वेद देवी वीणापाणि ही पोंछती हैं। मध्याह्न सन्ध्या से पूर्व तक उनकी वाणी अविराम श्रुति, पुराण, दर्शन, सूत्रग्रन्थ आदि का पाठ कर जाती है। पता नहीं, कितनी विद्याओं के मूल सूत्र वे प्रतिदिन सुना जाते हैं। अदभुत हैं उनके ये दोनों शिष्य भी। इनकी स्मरण-शक्ति जैसे इनके कर्ण-कुहरों में ही निवास करती है। श्रवण–केवल एक बार श्रवण कर लिया मूल सूत्रों का, मन्त्रों का और इतना इनके लिए बहुत अधिक है। ‘वत्स कृष्णचन्द्र! तुम अपने सहाध्यायियों को सूत्र का मर्म समझा दो।’ गुरुदेव श्रान्त हो जाते हैं तब विश्राम का यह अवसर निकालते हैं। आजकल उनका लगभग पूरा समय इन दोनों भाइयों को मूल ग्रन्थ सुना देने में जाता है। छात्रों का समय नष्ट नहीं होना चाहिये, किन्तु दूसरे छात्र भी तो उत्सुक रहते हैं राम या कृष्ण के द्वारा ही अध्ययन करने के लिए। ये दोनों भाई जितनी सरल, सुस्पष्ट, विशद शैली में व्याख्या करते हैं–कोई भी भाष्य या व्याख्या कहाँ इतनी पूर्ण मिलती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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