भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अवतार तत्त्व
ग्यारह कला से ऊपर प्रकट होती हो तो प्रभु फिर सम्पूर्ण मानव-चरित प्रकट करते हैं। वे शिशुलीला से प्रारम्भ करते हैं और दीर्घकाल तक धरा उनके चरण स्पर्श से धन्य होती है। पूर्णावतार- श्रीराम और श्रीकृष्ण के पूर्णावतार ऐसे ही हुए। अंशांश अवतार मरीचि आदि ऋषि- प्रजापति; अंशावतार ब्रह्मा, नारदादि; आवेशावतार परशुराम, पृथु आदि; कलावतार कपिल, वामन, वाराह प्रभृति और पूर्णावतार श्रीराम, श्रीकृष्ण। इनमें कुछ नित्यावतार हैं, प्रत्येक युग में कल्प में वे होते ही हैं; जैसे ब्रह्माजी, सृष्टि जब होगी प्रारम्भ में प्रकट होंगे और सृष्टि पर्यन्त रहेंगे। कुछ युगावतार हैं; जो निश्चित युगोंमें होते ही हैं; क्योंकि सृष्टि का विधान ही ऐसा है कि कल्प-कल्प में प्राय: समान चलती है, अत: युग-युग में प्राय: समान समस्याएं उपस्थित रहती हैं और यह सुनिश्चित है कि उनका समाधन श्रीहरि कब किस रूप में अवतरित होकर करेंगे। परिपूर्णतम परमेश्वर तो परम स्वतन्त्र है। सृष्टि और सृष्टि के विधान उसे परवश नहीं करते। वह केवल तब प्रकट होता है, जब भावुक भक्तों का प्रेमाग्रह उसे विवश करता हैं। जैसे श्रीकृष्णावतार वर्तमान कल्प में सत्ताइस चतुर्युगी व्यतीत हो जाने पर अट्ठाइसवें द्वापर के अन्त में हुआ। नौ कला के कारक पुरुषों में तो शक्ति का तारतम्य होता है; किन्तु दस कला से पूर्णाणावतार तक चिन्मय वपु हैं। उनमें कोई तारतम्य नही है। उनमे कला की तारतम्य की कल्पना केवल इसीलिए की जाती है कि प्रयोजनानुसार जगत में शक्ति का प्राकट्य उनमें दीखा। अन्यथा वे एक-ही के प्रादुर्भाव हैं। सृष्टि के पालन का दायित्व भगवान विष्णु का है- ब्रह्माण्डाधीश, क्षीराव्धिशायी का। अत: अधिकांश अवतार उनके ही अंश माने जाते हैं। चिन्मय वपु अनित्य नहीं हो सकता। अनन्त दिव्यधाम हैं और वहाँ एक ही तत्त्व विविध रूपों में क्रीडा कर रहा है। ब्रह्मण्ड में उन धामों में से कुछ प्रतिफलित होते हैं। ये वाराह, नृसिंह, मत्स्य, कूर्मादि के लोक हैं और इन-इन लोकों से ये अवतार होते हैं; किन्तु इनमें ब्रह्माण्डनायक श्रीनारायण का ही तेज है, अत: ये उनके ही अंश कहे जाते हैं। भक्त समूह को या किसी भक्त विशेष को कृतार्थ करने-उसकी भावना के अनुरूप दिव्यधाम से स्वयं परात्परप्रभु भी प्रेम-परवश पधारते हैं। वे दर्शन देकर अन्तर्हित हो जायेंगे या सम्पूर्ण लीला व्यक्त करेंगे, यह तो वे जिनके प्रेम परवश पधारे हैं, उनकी भावना पर निर्भर है, किन्तु वे कब आवेंगे, कब तक रहेंगे धरा पर व्यक्ति रूप में, इसका कोई नियम नही बन सकता। अनेक बार उनके आविर्भाव के समय भगवान विष्णु उनमें एक होकर प्रकट होते हैं और धर्म-स्थापन, असुर दमन का कार्य वे उनसे एक रहकर या पृथक होकर भी सम्पन्न करते हैं। केवल एक बात और इस सम्बन्ध में यह है कि सर्वेश्वर वस्तुत: भौतिक धरा पर आते नहीं। वे केवल यहाँ अपने को व्यक्त करते हैं और तब उनका नित्य धाम उनके परिकरादि भी व्यकत्त हो जाते हैं। वस्तुत: तो यह धरा है ही सृष्टिकर्ता के मानस में और सृष्टिकर्ता स्वयं भगवान् नारायण की नाभि कमल पर स्थित हैं। अनन्तान्त ब्रह्माण्ड सगुण परमेश्वर के संकल्प में ही उदय-विलय होते हैं। अपने संकल्प के इस जगत में अपने को, अपने नित्यधाम को परिकरों सहित कभी वह लीलामय व्यक्त कर देता है और कभी तिरोहित कर लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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