भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उपनयन
माता देवकी ने दोनों पुत्रों के साथ मंगल स्नान कर लिया। गर्गाचार्य जी ने पूजन प्रारम्भ किया। सर्वतोभद्र, मातृ का नव-ग्रहादि के मण्डल स्वर्ण-वेदियों पर रत्नों से बने पहले से सुशोभित हैं। गणपति पूजन, नवग्रह पूजनादि के अनन्तर पंच देवताओं का आवाहन-पूजन समाप्त हुआ। पूर्वाभिमुख भाई के साथ बैठकर श्रीकृष्णचन्द्र ने तिल से भरे रत्न-पात्रों के साथ स्वर्ण-राशि का दान कर दिया। वसुदेव जी ने पंच भू-संस्कार सम्पन्न करके तीन ब्राह्मणों को भोजन कराने का संकल्प किया। भोजन तो तीन सहस्त्र ब्राह्मण करेंगे; किन्तु विधि तो तीन ब्राह्मणों के लिए संकल्प करने की है। राम-कृष्ण के उपनयन में भोजन करने वाले ये तीन ब्राह्मण–देवर्षि नारद, महर्षि भृगु और महर्षि अंगिरा ने इस स्वत्व को अपना बताकर पहले से सुरक्षित करा लिया है। वसुदेव जी ने आचार्य-पूजन प्रारम्भ किया तो श्रीगर्गाचार्य का शरीर पुलकित हो उठा। वे कर्पूर-गौरवर्ण, उज्वल वस्त्र, स्फटिकमाला-भूषित, श्वेतचन्दन-चर्चित–भगवान शंकर के साक्षात शिष्य, लम्बे, कृशकाय दूसरे शशि के समान तेजस्वी-आज के सौभाग्य की ही आशा में तो इन्होंने–इन परम विरक्त ने यदुकुल का पौरोहित्य स्वीकार किया–परम पुरुष निखिल-भुवननायक, सच्चिदानन्दघन आचार्य बनावेंगे मुझे!’ महर्षि के आनन्द की सीमा नहीं है। सुरगुरु बृहस्पति, विद्या एवं ज्ञान की अधीश्वरी देवी सरस्वती और स्वयं भगवती सावित्री–जिनकी दीक्षा देकर महर्षि आचार्य बनेंगे, इनमें कोई आज महर्षि के सौभाग्य, उनके गौरव, उनकी महिमा से स्पर्धा नहीं कर सकता। आज वे कृष्णचन्द्र के आचार्य होंगे। भगवान वासुदेव जिनके पदों में प्रणत होंगे–सुर, लोकपालादि सभी तो उनके पादपद्मों में प्रणति से अपने को परिपूत ही मानेंगे। विधि बहुत निष्ठुर होती है। दिगम्बर राम-श्याम जब आचार्य के आदेश से नापित के सम्मुख आ बैठे–उसका सम्पूर्ण शरीर काँपने लगा। उसने कल ही प्रार्थना की थी–यह कार्य वह नहीं कर सकेगा। यम भी इतना निष्ठुर कार्य नहीं कर सकता। उसे भले प्राणदण्ड दे दिया जाय; किन्तु…..’ किन्तु करे क्या वह। महाराज उग्रसेन की, वसुदेव जी की भी आज्ञा वह टाल सकता था–टालने का निश्चय कर चुका था–परिणाम चाहे जो होता; किन्तु उसके पास तो महर्षि गर्गाचार्य का शिष्य गया था महर्षि का आदेश लेकर। महर्षि की आज्ञा कोई कैसे अस्वीकार कर दे। ‘राम-श्याम के ये सघन, मृदुल, घुंघराले काले केश–इन पर उस्तरा चला पायेगा वह?’ रोते-रोते उसने महर्षि के चरण पकड़ लिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज