भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
माता रोहिणी आयीं
यह अच्छा ही है। ऐसा न होता तो माता जीवित नहीं रह पातीं व्रज से वियुक्त होकर। उनको कृष्ण की चिन्ता ने ही जीवित रखा है; अन्यथा व्रज का स्मरण करते ही वे सुधि-बुधि खो बैठती हैं। तब उनके नेत्रों से गंगा-यमुना की धारा चलने लगती है। तब उनका शरीर ऐसा विवर्ण हो उठता है कि अनेक बार देवकी जी या कोई और तत्काल दासी दौड़ती है श्रीकृष्ण के समीप घबडाकर। वे आते हैं और तभी उनकी यह माँ चैतन्य हो पाती हैं। ‘माँ! माँ! माँ!’ कृष्ण को भी अब रात-दिन माँ की ही धुन रहती है। कुछ लेना हो तो ‘माँ!’ कुछ कहना हो तो ‘माँ!’ कुछ करना-कराना हो तो ‘माँ!’ अब जैसे वसुदेव जी के अन्त:पुर में कृष्ण के लिए केवल एक माँ हैं और वे हैं रोहिणी जी। दूसरों को–देवकी को भी वे ‘माताजी’ कहते हैं। ‘माँ!’ को पुकारते, ‘माँ’ को पूछते आवेंगे अन्त:पुर में और माँ से ऐसे घुल-मिलकर बोलेंगे कि बस बैठी सुना करो। अब माँ सुलावे तो सोवें, माँ खिलावे तो खायें, माँ जल दे तो स्नान, माँ वस्त्र दे तो वस्त्र, माँ अंगराग दे वह अंगराग। सबकी साध है–सब श्याम को खिलाना, दुलारना चाहती हैं–कृष्ण किसी की उपेक्षा नहीं करते; माँ रोहिणी की कहीं तुलना नहीं। उनसे कोई स्पर्धा नहीं। माँ वे हैं–अकेली वे कृष्ण की माँ हैं मथुरा में। माता रोहिणी आ गयी हैं। व्रज के–व्रजवासियों के शील, स्नेह, सौहार्द, सेवा की चर्चा उनके मुख से सुनने को मिल जाती है सबको। श्रीबलराम बचपन से गम्भीर रहे हैं। मथुरा आकर और गम्भीर हो गये हैं; किन्तु कृष्ण व्रज की चर्चा किससे करें? माँ का ही अंक है कि उसमें मस्तक रखकर कभी-कभी सिसक लेते हैं। माँ कुछ कह लेती, सुन लेती हैं और स्नेह से सहला लेती हैं। वे आ गयीं–कृष्ण को मानों सहारा मिल गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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