भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
पितृ-मिलन
‘माँ! पिताजी!’ दोनों भाइयों ने आकर माता पिता के चरणों में मस्तक रखा। महाराज उग्रसेन दो पद चलकर रुक गये हैं। उन्हें इस मिलन में व्याघातत नहीं बनना चाहिये। नागरिकों को राजसेवकों ने मंचों पर से उठने से रोक दिया है। विनम्र होकर–हाथ जोड़कर रोक दिया है। अब वे नम्रता की मूर्ति बन गये हैं; किन्तु उनका अनुरोध उचित हैं। चिर वियुक्त माता-पिता से पुत्रों के इस मिलन में किसी को बाधा नहीं देना चाहिये। ‘ये भगवान! साक्षात परमपुरुष श्रीहरि!’ वसुदेव-देवकी स्तब्ध रह गये हैं। ‘ये चरण-वन्दन करते हैं? यह इनकी लीला–इनकी मर्यादा; किन्तु ये नररूप तो हुए थे हमारे ही अनुरोध से।’ एक अज्ञात भय भी हृदय को उन्मथित कर रहा है– ‘ये श्रीहरि हैं! धरा का भार दूर हो गया। कंस और उसके असुर मारे जा चुके! अब ये अदृश्य तो नहीं हो जायेंगे?’ वसुदेव-देवकी वैसे ही मूर्ति के समान स्थिर बैठे रह गये हैं। वे आशीर्वाद देने को हाथ तक नहीं हिला सके। केवल देख रहे हैं। अपलक देख रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज