भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
साकार तत्त्व
जो स्वयं पाश-छेदन में समर्थ नहीं हैं - उन्हें पाशछेत्ता की सहायता चाहिए।[1] वह अनंत करुणावरुणालय सदा प्रस्तुत है सहायता देने को; किन्तु उसकी भी एक प्रकृति हैं। वह पराये का पाश-छेदन नहीं करता। केवल अपनों का पाश-छेदन करता है। यह ठीक है कि उस सर्वरूपमय, सर्वेश्वर का पराया कोई नहीं हैं सब उसके अपने हैं। सब वह स्वयं है; किन्तु वह स्वरूपत: तो निर्गुण है। उसमें तो तुम्हारे दिये गुण प्रतिफलित होते हैं। वह सगुण अपने गुण तुम्हें देता है और स्वयं निर्गुण बन गया है। तुम उसे जो गुण दो-वह गुण लेकर वह पुन: तुम्हारे लिए वैसा सगुण बन जायेगा। जीव में भावना होती है तो उसकी दुर्बलता भी धन्य हो जाती है। भावना से वह भगवान को अपना बनाता है और भगवान तो उसके अपने हैं ही। वे भावना को स्वीकृति देते हैं। भावना कहाँ की जाती है। भावस्तरें हैं और मन जिस भाव-स्तर में होता है, उसके अनुसार भाव उठते हैं। वस्तुत: जो प्रतिबिम्ब नित्यधाम में जिस रूप में है, उस भाव में जब उसका मानस पहुँचता है- उस भाव का जागरण अन्तर में होता है तो वहीं मन स्थिर होता-दृढ़ होता है। अपने नित्य स्वरुप, नित्य सम्बन्ध का बोध होता है उसे। ऐसे भाव प्राण जनों के साथ क्रीड़ा का आनन्द लेने, उनकी भावना को सफल करने वह लीलामय नित्यधाम से धरा पर अवतीर्ण होता है। बार-बार युग-युग में अवतीर्ण होता है। भगवद्भक्तों की भावना उसे यहाँ आने को विवश करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑
घृणा लज्जा भयं शोको जुगुप्सा चेति पचंमम्।
कुल शील तथा जातिरष्टौ पासा: प्रकीर्तिता॥
पाश्बध्द्र: पशुर्ज्ञेय: पाशमुक्तो महेश्वर:॥
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