भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गज–वध
हाथी सूँड उठाकर चिंग्घाड़ने लगा। इतने संकट में कुवलयापीड कभी नहीं पड़ा था। कंस ने उसे सूँड़ पकड़कर आगे घसीटा था और वह आगे दौड़ता गया था; किन्तु इतना भारी शरीर, ऊँचाई पर जाना सामने चलकर भी हाथी को भारी पड़ता है और उसे पीछे घसीटा जा रहा था। बहुत छोटी, पतली पूँछ होती है हाथी की। शरीर का सबसे दुर्बल अंग और लगता था कि उसकी यह इकलौती पूँछ उखड़ जायेगी यदि तनिक भी रुकने का प्रयत्न किया उसने। विवश चिंग्घाड़ता, घसिटता चला गया बेचारा हाथी। गोपकुमारों ने तालियां बजायी; किन्तु तत्काल संशक हो गये। हाथी की पूँछ के बाल काँटो जैसे होते हैं। अत्यन्त सुकुमार हैं श्याम के कर। पच्चीस धनुष तक पीछे खींचकर कृष्णचन्द्र ने उसे छोड़ा। हाथी की सूँड़ काम नहीं आयी। वह जिधर सूँड़ बढ़ाता – कृष्ण दूसरी ओर हो जाते। कभी दाहिने, कभी बायें। हाथी तो तब सम्हला जब उसकी पूँछ छोड़ दी गयी। भयंकर क्रोध से फुंकारता वह घूमा। तड़ाप से एक थप्पड़ पड़ा उस पर। बालक स्तब्ध देखते रहे। कृष्णचन्द्र भाग चले हाथी दौड़ पड़ा है उनके पीछे। सहसा श्याम भूमि पर गिर पड़े। लगा बालकों का धड़कता हृदय बन्द हो जायेगा। किन्तु उन्हें उसी क्षण अपने चंचल सखा की चतुराई समझ में आ गयी। वह तो जानबूझकर गिरा था और उठकर वह दूर जाकर खड़ा हो गया है। हाथी ने गिरते देखा श्रीकृष्ण को। उसने दौड़कर पूरी शक्ति से भूमि में दाँत मारे। दाँत धँस गये पृथ्वी में। ‘कोई नहीं है यहाँ।’ हाथी ने अपनी भूल समझ ली। बल लगाकर उसने अपने दाँत निकाल लिये। हाथी स्वयं क्रोध से पागल हो रहा है। ऊपर से हस्तिप अंकुश मारक मस्तक छेदे डालता है। क्रोध में भरा हस्तिप पूरी शक्ति से अंकुश मार रहा है। दूसरा समय होता तो कुवलयापीड ने अब तक उसे सूँड़ से पृथ्वी पर पटककर चीर फेंका होता। अंकुश की मार उस पर कभी नहीं पड़ी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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