भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
शिवरात्रि का सबेरा
महाराज का सस्मित अभिनन्दन पाकर मल्लगण हर्षित हुए। मल्ल भूमि के समीप आकर उन्होंने शरीर पर के वस्त्र उतार दिये। लंगोटे कसे विशाल देह, अत्यन्त पुष्ट पाषाण भित्ति के समान शरीर, एक-एक पेशी उभरी-चमकती हुई। लोगों की दृष्टि स्वत: आकर्षित हो गयी उधर। वाद्यों ने ध्वनि बदल दी। मल्लयुद्ध का स्वर उठने लगा उनसे। मल्लों ने हर्षित होकर मल्लभूमि का उपस्थान करना प्रारम्भ किया। पुष्पांजलि दी वहाँ। वद्धांजलि मस्तक झुकाया और तब क्रमश: एक-दूसरे को श्रेष्ठता के क्रम से अभिवादन करने लगे। ‘महाराज रंगशाला पहुँच गये हैं।’ व्रजराज को सन्देश मिला। उन्होंने और गोपों ने अरुणोदय होते ही स्नान कर लिया था। यह उनकी नित्य की चर्या थी। अपने आह्विक कृत्य वे लगभग समाप्त ही कर चुके थे कि राजसेवक पहुँचा– ‘आप सबकी महाराज प्रतीक्षा कर रहे हैं। बालक पीछे आ जायेंगे। आप सबके पहुँचते ही मल्लक्रीड़ा प्रारम्भ हो जायेगी।’ ‘महाराज पहुँच गये हैं। प्रतीक्षा कर रहे हैं।’ गोपों ने केवल उपहार छकड़ों पर रखे। शीघ्रता में पगड़ियाँ धारण की, कंचुक पहिने। बालक कल नगर में देर तक घूमे थे। बहुत थके थे। वैसे भी अभी शीत पड़ता है प्रात:काल। श्रीबलराम, कृष्ण और गोपकुमार कुछ देर से ही उठे थे। बालकों ने अभी कठिनाई से स्नान किया था। उनको प्रस्तुत होने में विलम्ब होना स्वाभाविक था। सचमुच वे पीछे ही आ सकेंगे। ‘बाबा तुम चलो।’ कृष्णचन्द्र ने कहा– ‘मैं दादा के तिलक कर दूँ। इनकी अलकों में थोड़े पुष्प लगा दूँ। हम सब एक साथ तनिक-सी देर में आ रहे हैं।’ कृष्ण को अभी अग्रज का श्रृंगार करना है। वह अपने कई अनुजों को भी सजावेगा। उसका श्रृंगार दूसरे करेंगे। बाबा इन बालकों को शीघ्रता करने को कह ही सकते हैं। इस समय महाराज का सन्देश पाकर रुका नहीं जा सकता। ‘तुम सब साथ ही आना। कोई धूम मत करना।’ बाबा ने कहा– ‘बल ! छोटे भाई को तथा सखाओं को लेकर वहाँ सीधे हमारे पास आ जाना। हम तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे। तुमने रंगशाला का मार्ग देखा है?’ ‘वह–वहीं तो इतने वाद्य बज रहे हैं।’ भद्र ने हँसकर कहा– ‘उस ओर जाने वाला पूरा पथ सजाया गया है।’ बालक कल नगर घूम आये हैं। पथ इनका देखा लगता है। नागरिक रंगशाला पहुँच गये हैं। स्वयं बालकों में उत्सुकता है मल्लक्रीड़ा देखने की। ये देर नहीं करेंगे और आज इन्हें प्रातराश तो करना नहीं है। यह सब सोचकर व्रजराज गोपों के साथ चल पड़े। रंगशाला के द्वार पर छकड़ों से उपहार-भाण्ड उठाये। नवनीत और दधि के भाण्ड राजमंच के सम्मुख उपहार निवेदन करके सब गोप राजा को अभिवादन करके एक ही मंच पर जाकर बैठ गये। कंस के संकेत से वे दधि, नवनीत-भाण्ड नागरिकों के यथेच्छ उपयोग के लिए रंगशाला में यत्र-तत्र रख दिये गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज