भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
शिवरात्रि का सबेरा
कंस केवल इतना ही नहीं चाहता था कि माता-पिता अपने पुत्रों का वध अपनी आंखों देखें। वह तो आज यहीं इसी रंगशाला में सबको–लगभग सब यदुवंशियों को ही समाप्त कर देने पर उतारू था। उसे मथुरा के उन सब नगर-जनों को मार देना था यहाँ जो कल वसुदेव के पुत्रों का स्वागत कर रहे थे। ‘कल धनुषशाला मेरे सैनिकों के शवों से भर दी उन्होंने।’ कंस का पैशाचिक निश्चय था– ‘आज उनके और उनके सम्पूर्ण स्वजनों-सेवकों के शवों से मैं रंगशाला भर दूँगा।’ महासंहार की भयानक योजना उसने अपने मन में बना ली थी; किन्तु वह योजना उसके मन में ही रह जायेगी–यह कहाँ पता था उसे। कंस के सगे भाई आये और राजमंचों को घेरे हुए अत्यन्त निकट मंच बना था, उस पर बैठ गये। लगभग सब नागरिक, सामन्तादि सूर्योदय होते-होते आ गये और अपने स्थानों पर बैठ गये। ‘महाराजाधिराज पधार रहे हैं।’ राजकीय बन्दी ने उच्च स्वर में पुकार की। सभी लोग उठ खड़े हुए अपने स्थानों पर। दस हाथ ऊँचा बना था कंस का मंच। उस पर चारों ओर जालीदार पर्दे लगे थे। मन्त्रियों से घिरा कंस आया। उसने श्वेत वस्त्र पहना था। श्वेत मुकुट लगाया था। श्वेत चन्दन धारण किया था। श्वेत पुष्पों की माला थी उसके कण्ठ में। पता नहीं, इस श्वेत श्रृंगार में वह अपने काले अभिप्राय को छिपाना चाहता था या भयानक काले अपशकुनों के भय से बचने का उसका यह प्रयत्न था। कंस ने सबका अभिवादन स्वीकार किया। वह बैठ गया तो दूसरे सब लोग बैठ गये। उसके मन्त्रियों ने भी उसके भाइयों के मंच पर पीछे की ओर स्थान ग्रहण किया। अब सामन्त-मण्डलेश्वर, प्रमुख नागरिक अपने-अपने क्रम से उठकर राजमंच के सम्मुख आने लगे। वे अपने उपहार अर्पित करके अपने स्थानों पर लौट जाते थे। प्रधान समारोह के अवसर पर नरेश को उपहार देने की प्रथा बहुत प्राचीन है। ‘नन्दराय और उनके साथ के गोपों को बुला लो।’ कंस ने इधर-उधर देखकर मन्त्री पीठ से कहा– ‘उनसे कहना, महाराज ने कहा है कि बालक पीछे आ जायेंगे। व्रजराज आ जायें तो मल्लक्रीड़ा महोत्सव प्रारम्भ हो। मैं यहाँ उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।’ बहुत आदर का भाव-सम्मान दिखलाया कंस ने अपने शब्दों में। राजदूत तत्काल चला गया। इस समय चाणूर, मुष्टिक, शल, तोशलादि मल्लों से घिरा उनकी अग्रणी कूट रंगशाला में प्रविष्ट हुआ। इन वज्रकाय मल्लों ने राजमंच के सम्मुख आकर मस्तक झुकाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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