भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंस का भयोन्माद
अन्धकार हो चला। कक्ष में सेवक ने प्रदीप जला दिये। कंस सहसा चौंका– ‘उसकी छाया में ये इतने छिद्र! छाया के तो मस्तक ही नहीं है।’ घबराकर सिर टटोला उसने– ‘सिर तो अपने स्थान पर ही है।’ बाहर आ गया कक्ष से वह; किन्तु आज उसके नेत्रों को क्या हो गया है? उसे सब तारे दो-दो दीखते हैं। वृक्षों के पत्ते ऐसे स्वर्णिम लगते हैं, जैसे वृक्षों में आग लगी हो। वह फिर कक्ष में आया और फिर चौंका– ‘उसकी छाया पर दो सिर कैसे?’ फिर अपना सिर टटोला उसने। ‘ये बहुत बुरे अपशकुन हैं।’ कंस को अब स्मरण आया। उसने कान बन्द करके भीतर होने वाला शब्द सुनने का प्रयत्न किया; किन्तु बहुत प्रयत्न करके भी प्राण-घोष सुनायी नहीं पड़ा। उसने नासिकाग्र और भ्रू देखना चाहा। इनमें से एक की तनिक सी भी झलक उसे देखने को नहीं मिली। अपशकुनों से घबड़ाकर वह शैय्या पर जा लेटा। कहला दिया उसने कि उसे कोई जगावे नहीं। रात्रि का आहार किये बिना पहली बार सोया और स्वप्न देखने लगा– ‘भूत-प्रेत पिशाच भयंकर वीभत्स आकार वाले उसका आलिंगन कर रहे हैं। उसका मस्तक मुण्डित है, सर्वांग में तेल लगा है। गधों के रथ पर दिगम्बर बैठा दक्षिण जा रहा है। उसके गले में किसी काली स्त्री ने शव के ऊपर से उठाकर माला डाल दी है। वह विष खा रहा है।’ कंस नींद में ही चीत्कार कर उठा। फिर पलकें लगीं। फिर स्वप्न– ‘सूर्य पृथ्वी पर टूटकर गिरा और उसके चार टुकड़े हो गये। चन्द्रमा भी टूट गिरा और दस खण्ड हो गया। एक वृद्धा, विधवा पके खुले बाल की नग्न स्त्री खप्पर, तलवार लिये उसकी ओर दौड़ी आ रही है। कंस ने कई बार भय से चीत्कार की। कई बार सो जाने का प्रयत्न किया। सुन रखा था–फिर निद्रा आ जाये तो उससे पहले देखा स्वप्न निष्फल होता है; किन्तु उसे प्रत्येक बार दु:स्वप्न ही दीखते गये– ‘भयंकर घोष के साथ बड़ा भारी कुम्हार का चक्र घूम रहा है और उस पर कंस स्वयं बैठा है। तेली का एक बहुत बड़ा कोल्हू चल रहा है। कंस उसमें पड़ गया है और पिस रहा है। कहीं अधजले काष्ठों की ढेरी है। एक मस्तकहीन कबन्ध नृत्य कर रहा है। उसका कटा सिर गगन में चिल्लाता घूम रहा है। एक सरोवर है; किन्तु उसमें भस्म भरी है ऊपर तक। एक नग्न शूद्र, जो गलित कुष्ठ से सड़ रहा है, अट्टहास करता उसे आलिंगन करने आ रहा है। कंस ने घबड़ाकर शैय्या–त्याग कर दी। जागने पर भी उसे चैन कहाँ है। उलूक अपने कर्कश स्वर में उसके ही कक्ष पर बैठा उसका नाम लेकर उसे पुकार रहा है। कुत्तों का समूह रो रहा है। रात्रि में शृगाली और मार्जारी रो रही हैं। चारों ओर अपशकुन–मृत्यु के दूत अपशकुन। कंस उठकर फिर बाहर आया। ओस से नंगे पद भीग गये। कक्ष में लौटा और उसके पदचिह्न क्यों नहीं बन रहे हैं? अब नहीं–अब और एकान्त में वह नहीं रह सकता। भय से पागल हुआ जा रहा है। उठ पड़ा वह अपने भय से सामना करने का साहस करके। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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