भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
धोबी मरा
महाराज कंस के भागिनेय पूरे नगर के आदरणीय पूज्य हैं, इसमें किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिये और नागरिकों में तो किसी को सन्देह नहीं था कि ये जिसका उपहार स्वीकार कर लेंगे, उसका परम कल्याण होगा। कृष्ण कुछ चाहें और न मिले–अब तक तो यही हुआ है कि वे जो चाहते रहे हैं, लोग सस्नेह देते रहे हैं उन्हें। गोपियाँ कभी मना भी करतीं तो वह भी प्रेम का मना करना होता। कृष्ण के लिए अपना-पराया क्या। सब तो उनके अपने ही हैं। किसी के पास कोई वस्तु है और उसे लेने की इच्छा है तो माँग लेने या यों ही ले लेने में उनको तो कभी हिचकना नहीं आया। रंगकार सोचता था कि उसके समीप आने पर ये बालक एक ओर हटकर मार्ग दे देंगे; किन्तु ये तो मार्ग रोके ही खड़े हैं और ऊपर से वह वस्त्रों की मांग। एक दो-वस्त्र भी नहीं, सबके लिए वस्त्र। वह क्रोध से लगभग चिल्लाते हुए डाँटने लगा। व्यंग्यपूर्वक उस घमण्डी राजसेवक ने कहा– ‘जंगलियों! ऐसे ही वस्त्र पहिनकर तुम लोग गायें चराया करते हो? तुमने कभी देखे भी हैं ऐसे वस्त्र? इन वस्त्रों के पहनने योग्य भी तुम हो या नहीं–यह भी सोचा है?’ ‘मूर्खों! बड़े उच्छंखल हो गये हो तुम लोग! शीघ्र भाग जाओ यहाँ से अगर जीवित रहने की इच्छा हो!’ उसने उग्र स्वर में कहा– ‘तुम लोग महाराज के वस्त्र–राजकीय वस्त्र चाहने लगे हो! ऐसे घमण्डी-निरंकुश लोगों को हमारे महाराज बाँध लेते हैं, मार देते हैं और उनकी पूरी सम्पत्ति छीन लेते हैं।’ गोप-बालकों को बहुत बुरा लगा। प्राय: सबके मुख तमतमा उठे– ‘यह दुष्ट तो बकता ही जा रहा है।’ बालकों के हाथ लकुट पर कस उठे थे और एक क्षण मिलता तो उनके लकुट उस रजक की खोपड़ी पर एक साथ गिरते; किन्तु-रजक का सिर तो पलक झपकते धड़ से गिरा पथ की भूमि पर और उछलने लगा। कृष्णचन्द्र का मुख भी क्रोध से अरुण हो रहा था। उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाया था और हाथ के अग्र भाग के झटके से धोबी का सिर धड़ से उठा दिया था। ‘अच्छा किया!’ सखाओं ने एक साथ कहा। उस रंगकार के पीछे चलने वालों ने हाथ की स्वर्ण-यष्टियाँ वस्त्रों के साथ फेंकी और पीछे मुड़कर भागे। उन्होंने तो इस भय से कि ये बालक उनकी कटि में बँधी स्वर्ण-मुद्रायें लेने को पीछा न करें, थैलियाँ भी खोलकर फेंक दीं। वे भागते ही चले गये। पीछे मुड़कर भी उन्होंने नहीं देखा। गोपकुमारों ने तालियाँ बजा दीं और वे धोबी उससे और डरकर भागे। उन्होंने बहुत सुना है–उनके महाराज कंस के सब बड़े अनुचर राक्षसों को इन बालकों ने मार दिया है। उन्हें अपने प्राण नहीं देने। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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