भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
नगर दर्शन
इतना सुसज्ज-नगर गोप-बालकों ने देखा, किन्तु उन्हें इतने ऊँचे भवन, यह सब कृत्रिम श्रृंगार कुछ अधिक आकर्षक नहीं लगा। वे फल-भार से झुके वृक्षों, पुष्पों से लदी लताओं, कूजते पक्षियों और गुंजार करते भृंगों से मंजु कुंजाें में खेलने वाले बालक–कई ने परस्पर कहा भी– ‘नगर के लोग इन पिंजड़ों से गृहों में रह कैसे पाते हैं?’ सखाओं से घिरे बलराम-श्रीकृष्ण तो ऐसे चल रहे थे मानो राजकुमार पैदल घूमने निकले हों। मथुरा का कोई वैभव दृष्टि उठाकर देखने योग्य भी उन्हें नहीं लगा। मतगयन्द गति से वे चले जा रहे थे। दृष्टि उठाकर जिधर देख लें, वह गृह- वह दिशा कृतार्थ हो जाय, इतना गौरव था उनमें। मथुरा के नागरिक समझते थे ‘गोप बालकों के साथ आ रहे हैं। वे बालक वन में ही रहे हैं। नगर की शोभा देखकर चकित-थकित रह जायेंगे। इधर-उधर उत्सुकता से देखेंगे और पदार्थों-गृहों आदि के सम्बन्ध में पूछेंगे।’ ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ। इतना गौरव, इतनी महिमा दोनों भाइयों में ही नहीं, उनके मित्रों में भी है, यह नागरिकों की कल्पना से परे की बात है। वे तो देखते रह गये–स्वयं अभिभूत-चकित रह गये। ‘वसुदेव के दोनों पुत्र राजपथ से आ रहे हैं।’ नगर की नारियों ने सुना और वे दौड़ीं। सबके भवन तो राजपथ पर नहीं थे। नगर के दूसरे भागों की स्त्रियाँ राजपथ पर स्थित अपने परिचितों के भवनों में आ गयीं। बन्धुओं, कन्याओं का समूह गवाक्षों पर एकत्र हो गया। वृद्धायें द्वारों पर खड़ी हो गयीं। ‘वे भुवनमोहन-त्रिभुवन सुन्दर हैं।’ बहुत सुना था। आज उस छवि को भले क्षण भर को देखने को मिले–सब देख ही लेना चाहती थीं। और वे आये–मन्दमन्द हास्य शोभित श्रीमुख, कमलदल विशाल लोचन वे दोनों भाई झूमते से चले आये। वे तो भवन के सम्मुख से सहज गति से बढ़ गये; किन्तु सबके मन अपने साथ लेते चले गये। भवनों से नारियों ने उन पर दधि, अक्षत, चन्दन, मालायें तथा पुष्पों की वर्षा की। सम्पूर्ण राजपथ उन लाजा, पुष्प, दुर्वांकुर, चन्दनादि से आच्छादित होता चला गया। मार्ग में ब्राह्मणों ने बीच-बीच में रोककर तिलक किया और स्वस्ति पाठ किया। मन्दस्मित के साथ दोनों भाई अंजलि बांधकर विप्रवर्ग को मस्तक झुका देते थे। गृह द्वारों पर मस्तक पर भरा लट लिये गृहों की सेविकायें खड़ी थीं। उनको उन्होंने सम्मित देखकर धन्य कर दिया। दही, नवनीत, चन्दन, इत्र तथा नाना प्रकार के उपहार करों में उठाये नगर का वणिकवर्ग मार्ग में दोनों ओर पंक्तिबद्ध खड़ा था। खड़े तो थे स्वागतमाल्य लिये यदुकुल के राजपुरुष भी। दृष्टिपात से सबको धन्य करते,सहास्य कहीं-कहीं देखते दोनों भाई चले जा रहे थे सबका अभिनन्दन स्वीकार करते। ‘यह सौन्दर्य! यह गौरव! त्रिभुवन के सम्राट जैसा यह सहजशील!’ नागरिकों ने कहा– ‘धन्य हैं गोप, धन्य हैं गोपियाँ जो इनके नित्य प्रफुल्ल श्रीमुख का सदा दर्शन मिलता है उन्हें।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज