भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अक्रूर ब्रज गये
‘महामात्र! तुम विशेष सावधान रहो।’ कंस ने अपनी गजसेना के नायक से कहा– ‘कुवलयापीड को भरपूर सुरा पिलाकर उसे मल्लशाला के द्वार पर ही रखना। मेरे वे शत्रु आवें तो उनको गज के द्वारा कुचल दो द्वार पर ही।’ ‘इसी चतुर्दशी–शिवरात्रि को ही यह महोत्सव होगा। इस दिन भगवान पिनाकपाणि के धनुष की पूजा होगी पहले और तब सबके सम्मुख मैं उस धनुष को उठाऊँगा।’ कंस ने जनसमूह पर अपना प्रभाव स्थापित करने का मार्ग निकाल लिया था– ‘भगवान् आशुतोष भूतेश्वर को पवित्र पशुओं की बलि दो प्रात:काल। धनुषोत्तोलन के अनन्तर मल्लक्रीड़ा हो। पुरोहित सत्यकजी ने धनु-यज्ञ की आज्ञा दी है।’ कंस की योजना था कि गोप शिवरात्रि के उपवास से उस दिन कुछ तो दुर्बल रहेंगे ही। धनुषोत्तोलन के समय सबका ध्यान इस ओर होगा, उसी समय राम-श्याम रंगद्वार पर आवें, ऐसी व्यवस्था कर रखी जायेगी। महागज उन पर आक्रमण करेगा, तब रंगशाला में किसी का ध्यान द्वार की ओर नहीं जायेगा। कदाचित इससे बचकर आ गये तो रंगशाला में तो अपने मल्ल हैं ही। यदि वे द्वार पर ही समाप्त हो गये तो रंगशाला में एकत्र यादवों तथा नन्दादि को वहीं मरवा दिया जायेगा। उनको वहाँ से निकलने का अवसर नहीं मिलेगा। इसी समय अक्रूर जी ने वहाँ प्रवेश किया। उनको देखते ही कंस उठा सिंहासन से। उसने उठकर अक्रूर जी का हाथ पकड़ा और उन्हें लाकर अपने समीप बैठाया। अक्रूर जी चौंके– ‘नीच पुरुषों का अधिक आदर देना, बहुत गूढ़ अर्थ रखता है और ऐसे समय उनसे विशेष सावधाना रहना चाहिये।’ ‘दानपति! यादवों में केवल आप मेरे हितैषी हैं। आप पर ही मैं भरोसा कर सकता हूँ। भोज, वृष्णि, अन्धकादि कुलों में आपसे अधिक कोई मेरा हितैषी नहीं।’ कंस ने बहुत नम्रता से कहा– ‘देवराज इन्द्र जैसे उपेन्द्र-वामन का आश्रय लेकर अपने महत्व के कार्य बना लेते हैं, वैसे ही मैंने अत्यन्त महत्व के कार्य के लिए आपका आश्रय लिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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