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सगुण तत्त्व
एक शब्द बोला जाय तो सुनने वाले को या तो पहले से उसका अर्थ बोध हो अथवा उसे पहले से जिन शब्दों का अर्थ-बोध है, उन शब्दों में इस नवीन शब्द का अर्थ समझाया जा सके। यदि दो में कोई ज्ञात न हो तो पदार्थ या क्रिया दिखलानी पड़ेगी जिसका बोधक वह शब्द है अन्यथा वह शब्द निरर्थक होगा। सृष्टि के आदि में आदिपुरुष को शब्द ज्ञान कैसे हुआ? उसकी सन्तति ने क्या पदार्थ एवं क्रिया दिखा-दिखाकर शब्द-सृष्टि की? यह शक्य नहीं है। इतना शब्द विस्तार इस पद्धति से असम्भव है। पहिले से अन्य शब्द तब थे नहीं। मानसिक भाव सुख, दु:ख, अहंकार, स्नेह, घृणादि की इस प्रकार क्रिया दिखाकर नामकरण अशक्य है। एक सगुण सर्वसमर्थ परम प्रकाशक ही था जिसने उस आदि- मानव के हृदय में एक साथ शब्द एवं अर्थ का प्रकाश किया और उस मानव से सृष्टि में शब्द तथा शब्दार्थ ज्ञान की परम्परा
आयी। आज भी शब्द ज्ञान परम्परा से ही पाया जाता है। सृष्टि के मूल में सगुण परमात्मा को स्वीकार किये बिना शब्द ज्ञान की परम्परा समझने का कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
ईश्वर की कृपा का अनुभव है, शब्द ज्ञान की परम्परा है जो सगुण ईश्वर के बिना नहीं मिल सकती और सृष्टि का वैविध्य है- यह सब कहता है कि वह अचिन्त्य, अनिर्वचनीय तत्व सगुण है और उसका निर्गुण रूप तो अनुभव गम्य है ही। सृष्टि में इतना वैविध्य क्यों है? परमब्रह्म परमात्मा से आत्मा को पृथक मानना- यह भेद भ्रम है, अज्ञान है और ज्ञान से इसकी निवृत्ति हो जाती है; किन्तु ज्ञान से भी प्रपञ्च के विविध रूपों की प्रतीति नहीं मिटती। घट-सरावादि सब एक ही मिट्टी से बने हैं, यह ठीक– किन्तु इनके आकार में अनेक रूपता इसलिए तो है कि इनके निर्माता कुम्भकार में अनेक संस्कार हैं।
अज्ञान में वस्तु को विपरीत दिखलाने की क्षमता तो है; किन्तु एक वस्तु को अनेक रूप दिखलाने की क्षमता नहीं है। अज्ञान से रस्सी सर्प, हार, दण्ड आदि जान पड़ सकती है, किन्तु एक ही रस्सी एक ही व्यक्ति को एक ही समय सर्प, दण्ड, माला आदि कई रूप में नहीं दीख सकती। प्रपञ्च का आधार एक अद्वय परमब्रह्म है और उससे अभिन्न आत्मा स्वयं प्रकाश होने से प्रपञ्च को प्रकाशित करता है। अनन्त को सम्पूर्ण देखा नहीं जा सकता, इससे भ्रान्त दिखता है, यह ठीक; किन्तु विविध रूपता कहाँ से आती
है? इस विविध रूपता के मूल में सगुण ईश्वर, उसके नित्यधाम को माने बिना उपाय नहीं है और श्रुति-शास्त्र इस सगुणतत्व का प्रतिपादन करते हैं।
सगुणतत्व -आधिदैविक पुरुष श्रद्धैकगम्य है। शास्त्र पर श्रद्धा करके ही उसे मानना पड़ता है और भक्ति के द्वारा उसकी उपलव्धि होती है। भगवान वासुदेव मर्त्य शरीरी प्रतीत होने पर भी सच्चिदानन्दघन विग्रह थे। श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में न पञ्चमहाभूतों का लेश था, न उनमें स्थूल, सूक्ष्म, कारण देह का भेद था। लोक में लौकिक देह एवं देह-व्यवहार की प्रतीत उन लीलामय ने अनुग्रह के कारण करायी। वे अनुग्रहवश लोक में आविर्भूत हुए और अन्त में लीला-संवरण कर ली उन्होंने।
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