भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
क्रूरता कटती गयी
वसुदेव जी की व्याकुलता बढ़ गयी फिर। कहीं वहीं यमुना में कालिया का हृद भी है। बालक अब बिना वयस्क-गोपों के संरक्षण के वन में जाते हैं। वे अबोध हैं और असुर बहुत कपटी होते हैं। कंस भी समाचार पाने को वसुदेव जी से कम उत्सुक नहीं रहता। उसके पास समाचार पाने के प्रचुर साधन हैं; किन्तु समाचार जो आते हैं वे कंस को अधिक उद्विग्न, अधिक भयभीत ही करते हैं। वत्सासुर गया और गोपों के बछड़ो में मिल गया। ठीक किया था उसने। बालकों ने अभी-अभी बछड़े चराने प्रारम्भ किये थे। वे अपने-अपने बछड़े पहचान लेंगे, क्या सम्भावना थी। ‘मूर्ख था वह। कंस ने सुनकर मुट्ठियाँ बाँध लीं। ‘उसे काला ही बछड़ा बनना था। इतना मोटा तगड़ा बनकर गया कि पहचान लिया गया।’ कृष्ण ने पिछले पैर पकड़कर कपित्थ पर दे मारा उसे और उसका कचूमर निकल गया; किन्तु पता नहीं बकासुर के साथ क्या हुआ। जब से उसकी बहिन पूतना मारी गयी, वह क्रोध से पागल हो रहा था। उसे कंस ने किसी प्रकार रोका था कि ठीक अवसर आने दे। अवसर तो ठीक ही मिला था। उसने निगल भी लिया था कृष्ण को। फिर पता नहीं क्या हुआ कि उगलना पड़ा और तब अवसर मिल गया उस गोपकिशोर को। उसने चोंच पकड़कर चीर डाला बेचारे बगुले को। मय का पुत्र व्योग स्वयं आ गया था मथुरा कंस से मिलने। कंस ने अपनी व्यथा सुनायी तो उसने दर्प से कहा था– ‘मैं मायावियों के परमाचार्य दानवेन्द्र मय का पुत्र हूँ। मित्र! तुमको निश्चिन्त रहना चाहिये। केवल दो ही नहीं, नन्द व्रज के सब लड़कों को मरा मान लो तुम।’ व्योम गोप-बालक बनकर गया था। मित्रता स्थापित करने में सफल हो गया था वह। अधिकांश को गुफा में बन्द भी कर चुका था; किन्तु कृष्ण बहुत चतुर है। उसने पकड़ लिया व्योम को और इतनी क्रूरता से पीट-पीटकर मारा उसे कि सुनकर रोमांच हो आता है। ‘कहीं कुछ गड़बड़ी है।’ कंस सोचता है– ‘वह मायावी हरि है। उसे मारने जाने वाले पूरे सावधान नहीं रहते।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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