भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
व्रजपति-मिलन
‘क्या किया जाये! सबके कर्म-प्रारब्ध पृथक्-पृथक हैं। सबको अपने प्रारब्ध का फल भोगना ही पड़ता है। अत: बहुत इच्छा होने पर भी मनुष्य अपने स्वजन-सुहृदों के साथ एकत्र नहीं रह पाता है।’ वसुदेव जी ने नेत्र पोंछे अपने। स्पष्ट ही था कि वे कितने भी उत्सुक हों, इस समय परिस्थिति ऐसी नहीं थी कि वज्रराज को गृह चलने और दो-चार दिन निवास करने को आमन्त्रित कर सकें, वे स्वयं भी गोकुल जाने की स्थिति में नहीं थे। ‘पुरुष को अर्थ, धर्म, काम तभी सुख देते हैं जब उसके सुहृद भी सुखी हों।' वसुदेव जी ने कहा– ‘सुहृद दुखी हों तो कोई सम्पत्ति या भोग सुखी नहीं करता। कंस ने मुझे सब सुविधा दे दी है अब; किन्तु…..। ‘भाई! मेरा पुत्र माता के साथ आपके यहाँ रहता है। वह आपको ही पिता मानता होगा।’ वसुदेव जी ने अब वह बात कही, जिसे कहने-जानने को वे अत्यन्त आतुर होकर यहाँ आये थे– ‘जानता हूँ कि आप प्रेम-वात्सल्य की मूर्ति हैं। उस पर आपका असीम वात्सल्य है। आप से उत्तम लालन-पालन उसका हम नहीं कर सकते।’
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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